Sunday, October 5, 2008

Dilip Kumar - The greatest actor



दिलीप कुमार का सफ़र 

हिंदी फ़िल्मों के बेहतरीन और दिग्गज अभिनेताओं का अगर नाम लें तो बेशक़ दिलीप कुमार का नाम उस फ़ेहरिस्त में ज़रुर शामिल होगा. 11 दिसंबर 1922 को पेशावर में जन्मे यूसुफ़ खान ने 1940 के दशक में जब हिंदी फ़िल्मों में काम करना शुरू किया तो दिलीप कुमार बन गए. 

मुंबई में उनकी प्रतिभा को पहचाना देविका रानी ने जो उस समय के टॉप अभिनेत्री थी. दिलीप कुमार की पहली फ़िल्म आई 1944 में-ज्वार भाटा लेकिन ज़्यादा चल नहीं पाई. पर अगले क़रीब दो दशकों तक दिलीप कुमार हिंदी फ़िल्मों पर छाए रहे. आइए नज़र डालते हैं उनके फ़िल्मी सफ़र पर एक आलेख-वंदना 

जुगनू 

दिलीप कुमार को फ़िल्मों में पहचान मिली 1947 में आई फ़िल्म जुगनू से. ये उनकी पहली हिट फ़िल्म थी. दिलीप कुमार के साथ थीं नूरजहाँ और शशि कला. 

इसमें मशहूर गायक मोहम्मद रफ़ी ने भी छोटा सा रोल किया था. फ़िल्म का निर्देशन किया था शौकत हुसैन रिज़वी ने. फ़िल्म का गाना 'यहाँ बदला वफ़ा का बेवफ़ाई के सिवा क्या है' काफ़ी लोकप्रिय हुआ था.

शहीद 

वर्ष 1948 में दिलीप कुमार की फ़िल्म शहीद आई. शहीद में दिलीप कुमार की जोड़ी बनी कामिनी कौशल के साथ. इसमें उन्होंने एक स्वतंत्रता सेनानी की भूमिका निभाई. अभिनय की दुनिया में नए नवेले दिलीप कुमार के काम को इस फ़िल्म में काफ़ी सराहा गया. 

फ़िल्म बनाई थी रमेश सहगल ने और संगीत दिया था ग़ुलाम हैदर ने. 



मेला 

वर्ष 1948 में फ़िल्म शहीद के बाद दिलीप कुमार ने मेला में एक बार फिर अपनी अभिनय क्षमता दिखाई. मेला में लोगों ने दिलीप कुमार को नरगिस के साथ फ़िल्मी पर्दे पर देखा. साथ में थे जीवन और रूपकमल. 

मेला का निर्देशन किया था एसयू सन्नी ने और संगीत का जादू बिखेरा था नौशाद ने. मेला और शहीद की सफलता ने दिलीप कुमार को स्थापित करने में काफ़ी मदद की.



अंदाज़ 

दिलीप कुमार के करियर में एक अहम फ़िल्म है अंदाज़. ये फ़िल्म हर मायने में ख़ास थी. अंदाज़ का निर्देशन किया था महबूब खान ने. फ़िल्म में दिलीप कुमार और राज कपूर एक साथ नज़र आए और ये आख़िरी मौका था जब दोनों ने साथ काम किया. बाद में दिलीप कुमार और राज कपूर दोनों ने सफलता की बुंलदियों को छुआ. 

अंदाज़ की नायिका थीं नरगिस. जब ये फ़िल्म रिलीज़ हुई थी तो इसने रिकॉर्डतोड़ कमाई की थी. इसमें संगीत नौशाद का था. 

पचास का दशक 

पचास के दशक में दिलीप कुमार, राज कपूर और देव आनंद का बोलबाला रहा. दिलीप कुमार ने बाबुल, दीदार, आन, फ़ुटपाथ, देवदास, यहूदी और आज़ाद समेत कई बेहतरीन फ़िल्में दीं. उन्होंने अपने समय की सारी टॉप हीरोइनों के साथ काम किया- मीना कुमारी, नरगिस, निम्मी और वैजयंती माला. 

वर्ष 1952 में आई फ़िल्म आन ख़ास तौर पर चर्चित रही. महबूब खान के निर्देशन में बनी आन में दिलीप कुमार और निम्मी थीं. साथ ही नादिरा ने पहली बार फ़िल्मी दुनिया में क़दम रखा.

देवदास 

ट्रेजेडी किंग की संज्ञा पा चुके दिलीप कुमार ने 1955 में काम किया फ़िल्म देवदास में. ये फ़िल्म उनके करियर में मील का पत्थर साबित हुई. 

इसमें चंद्रमुखी बनी थी वैजयंतीमाला और सुचित्रा सेन ने पारो का रोल निभाया था. जबकि मोतीलाल चुन्नी बाबू की भूमिका में थे. देवदास की गिनती निर्देशक बिमल रॉय की बेहतरीन फ़िल्मों में होती है. 

नया दौर 

पचास के दशक का अंत आते-आते दिलीप कुमार का करियर अपने चरम पर पहुंचने लगा था. नया दौर, यहूदी, मधुमती, गंगा जमुना और कोहिनूर जैसी फ़िल्में इसकी मिसाल हैं. मधुमती में दिलीप कुमार ने एक बार फिर बिमल रॉय और वैजयंतीमाला की टीम के साथ काम किया. पुनर्जन्म के थीम पर बनी मधुमती लोगों को ख़ूब भाई और साथ ही भाया इसका संगीत भी. वर्ष 1957 में आई दिलीप कुमार की फ़िल्म नया दौर. ये एक सामाजिक दस्तावेज़ की तरह है जो उस समय के दौर को बखूबी दर्शाती है।

मुग़ल-ए-आज़म 

लगातार सफलता की ओर बढ़ रहा दिलीप कुमार का करियर फ़िल्म मुग़ल-ए-आज़म के साथ मानो शिखर पर पहुँच गया. 

फ़िल्म को बनने में करीब दस बरस का अरसा गुज़र गया लेकिन जब ये रिलीज़ हुई तो हर तरफ़ इसी की धूम थी. मुधबाला की ख़ूबसूरती, दिलीप कुमार की अदाकारी, नौशाद का दिलकश संगीत...फ़िल्म का हर पहलू बेहतरीन था. बाद में इसका रंगीन वर्ज़न भी रिलीज़ किया गया. 

राम और श्याम 

कई फ़िल्मों में संजीदा रोल करने के बाद राम और श्याम में दिलीप कुमार ने कॉमेडी में भी अपने जौहर दिखाए. 1967 में बनी इस फ़िल्म का निर्देशन किया था तपि चाणक्या ने. ये जुड़वा भाइयों की कहानी है. 

फ़िल्म की दो हीरोइनें थीं वहीदा रहमान और मुमताज़. 

गोपी 

वर्ष 1970 में फ़िल्म गोपी में दिलीप कुमार ने काम किया सायरा बानो के साथ जो उनकी पत्नी भी हैं. 70 का दशक आते-आते दिलीप कुमार का करियर कुछ ढलान पर जाने लगा. 

राजेश खन्ना और अमिताभ बच्चन जैसे अभिनेताओं के आने के बाद उन्होंने फ़िल्में करना भी कुछ कम कर दिया. 1976 में आई बैराग के बाद वे कुछ सालों तक फ़िल्मों से दूर ही रहे. 
अस्सी का दशक 

अस्सी के दशक में दिलीप कुमार एक बार फिर फ़िल्मों में वापस आए- इस बार चरित्र किरदारों में. 1981 में आई फ़िल्म क्रांति में उनकी अहम भूमिका थी और ये वर्ष की सफलतम फ़िल्मों में से एक साबित हुई. 

क्रांति में मनोज कुमार, शशि कपूर, हेमा मालिनी, शत्रुघ्न सिन्हा, परवीन बाबी और सारिका ने भी काम किया था. 

इसके बाद दिलीप कुमार ने विधाता, शक्ति, मज़दूर, और मशाल जैसी फ़िल्में की.

कर्मा 

सुभाष घई के निर्देशन में आई कर्मा में दिलीप कुमार के काम को काफ़ी सराहा गया. विधाता के बाद दिलीप कुमार और सुभाष घई की ये फ़िल्म एक बार सफल साबित हुई. 

कर्मा में दिलीप कुमार के साथ थीं नूतन. 50 और 60 के दशक में दोनों अपने चरम पर थे पर एक साथ काम करने का मौका अस्सी के दशक में आई कर्मा से ही मिला. कर्मा में अनिल कपूर, जैकी श्रॉफ़, नसीरुदान शाह, श्रीदेवी, पूनम ढिल्लों और अनुपम खेर ने काम किया था.

सौदागर 

वर्ष 1991 में निर्देशक सुभाष घई ने वो कर दिखाया जो बरसों में नहीं हो पाया था-उन्होंने पुराने ज़माने के दो दिग्गज कलाकारों दिलीप कुमार और राज कुमार को दोबारा एक साथ फ़िल्मी पर्दे पर उतारा फ़िल्म सौदागर में. 

फ़िल्म सुपर-डूपर हिट साबित हुई. दिलीप कुमार और राज कुमार ने इससे पहले फ़िल्म पैग़ाम में एक साथ काम किया था.

दादा साहेब फाल्के पुरस्कार 

नब्बे के दशक के बाद से दिलीप कुमार ज़्यादातर फ़िल्मों से दूर ही रहे हैं. 1998 में रेखा के साथ आई क़िला के बाद वे फ़िल्मों में नज़र नहीं आए हैं. अपने फ़िल्मी करियर में दिलीप कुमार ने कई पुरस्कार जीते. 

उन्होंने आठ बार फ़िल्मफ़ेयर अवॉर्ड जीता है जिसमें दाग़, आज़ाद, देवदास, नया दौर, कोहिनूर, लीडर, राम और श्याम जैसी फ़िल्में शामिल है. 1994 में उन्हें फ़िल्मों के लिए सर्वोच्च सम्मान दादा साहेब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया गया था.

 

दिलीप कुमार की हालत स्थिर

दिलीप कुमार की हालत स्थिर
नई दिल्ली मशहूर फिल्म अभिनेता दिलीप कुमार की हालत स्थिर है और इस समय उनका इलाज दिल्ली के इंदप्रस्थ अपोलो अस्पताल में
चल रहा है। 
इस बात की जानकारी अस्पताल सूत्रों ने दी। सूत्रों ने बताया कि दिलीप कुमार को गुरुवार शाम साढ़े सात बजे 'यूरिन इन्फेक्शन' की शिकायत के बाद अस्पताल में भर्ती कराया गया था। अब उनकी हालत स्थिर है। अस्पताल के सूत्रों का कहना है कि उनके स्वास्थ्य पर नजर रखी जा रही 

A biographical sketch of Mohammad Rafi


सदियों तक नहीं भुला पाएंगे रफी साहब को  
स्रोत: प्रभासाक्षी स्थान: नई दिल्ली दिनांक: 31 जुलाई 2006 आवाज की दुनिया के बेताज बादशाह मोहम्मद रफी ने जब 31 जुलाई 1980 को एक गाने की रिकार्डिंग पूरी करने के बाद संगीतकार लक्ष्मीकांत प्यारे लाल से यह कहा कि `ओके नाउ आई विल लीव´ तब यह किसी ने भी नहीं सोचा था कि आवाज का यह जादूगर उसी शाम इस दुनिया को अलविदा कह जायेगा। संगीत के प्रति समर्पित मोहम्मद रफी कभी भी अपने गाने को पूरा किए बिना रिकार्डिंग रूम से बाहर नहीं निकला करते थे। उस दिन अपने संगीतकार से कह गए शब्द उनके व्यावसायिक जीवन के आखिरी शब्द साबित हुये। उसी शाम 7 बजकर 30 मिनट पर मोहम्मद रफी को दिल का दौरा पड़ा और वह अपने कराड़ों प्रशंसकों को छोड़कर इस दुनिया से हमेशा-हमेशा के लिए चले गये। मोहम्मद रफी आज हमारे बीच नहीं हैं लेकिन फिजा के कण-कण में उनकी आवाज गूंजती हुई महसूस होती है। हिंदुस्तान का हर संगीत प्रेमी मोहम्मद रफी की दिलकश आवाज का दीवाना है। विदेशों में उनकी लोकप्रियता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 70 के दशक में पाकिस्तान में जितने लोकप्रिय मोहम्मद रफी थे उतनी लोकप्रियता वहां के प्रधानमंत्री जुल्फीकार अली भुट्टो को भी हासिल नहीं थी। एक गाने ने मोहम्मद रफी को खासतौर से पाकिस्तान मे हर दिल अजीज बना दिया था। फिल्म समझौता का यह गाना `बड़ी दूर से आए हैं प्यार का तोहफा लाए है´ बंटवारे के बाद अपने रिश्तेदारों से बिछडे़ हर पाकिस्तानी की आंखें आज भी नम कर देता है। पाकिस्तान में ही नहीं ब्रिटेन, केन्या, वेस्टइंडीज मे भी मोहम्मद रफी के गाने पसंद किए जाते हैं। मोहम्मद रफी बचपन में अपने माता-पिता के साथ लाहौर में रह रहे थे। उन दिनों अक्सर उनके मोहल्ले मे एक फकीर का आना जाना लगा रहता था। उसके गीत सुनकर मोहम्मद रफी के दिल मे संगीत के प्रति लगाव पैदा हुआ जो दिन पर दिन बढ़ता गया। उनके बडे़ भाई हमीद ने मोहम्मद रफी के मन मे संगीत के प्रति बढ़ते रुझान को पहचान लिया और उन्हें इस राह पर आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया। रफी ने लाहौर में उस्ताद अब्दुल वाहिद खान से संगीत की शिक्षा लेना शुरू कर दिया। इसके अलावा वह गुलाम अलीखान से भारतीय शास्त्रीय संगीत भी सीखा करते थे। उन दिनों रफी और उनके भाई संगीत के एक कार्यक्रम में सुप्रसिद्ध गायक कलाकार केएल सहगल के गानों को सुनने के लिए गये। लेकिन बिजली चली जाने के कारण जब केएल सहगल ने गाने से इंकार कर दिया तब उनके भाई हमीद कार्यक्रम के संचालक के पास गए और उनसे गुजारिश की कि वह उनके भाई रफी को गाने का एक मौका देें। संचालक के राजी होने पर रफी ने पहली बार 13 वर्ष की उम्र में अपना पहला गीत स्टेज पर दर्शकों के बीच पेश किया। दर्शकों के बीच बैठे संगीतकार श्याम सुंदर को उनका गाना काफी पसंद आया और उन्होंने रफी को मुंबई आने का न्यौता दे दिया। श्याम सुदंर के संगीत निर्देशन में रफी ने अपना पहला गाना एक पंजाबी फिल्म `गुलबलोच´ के लिए `सोनिए नी हिरीए नी´ पाश्र्व गायिका जीनत बेगम के साथ गाया। वर्ष 1944 में नौशाद के संगीत निर्देशन में उन्होंने अपना पहला हिन्दी गाना `हिन्दुस्तान के हम हैं´ `पहले आप´ फिल्म के लिए गाया लेकिन इस फिल्म के जरिए वह कुछ खास पहचान नहीं बना पाये। लेकिन वर्ष 1949 में नौशाद के संगीत निर्देशन में ही फिल्म `दुलारी´ में गाए गीत `सुहानी रात ढल चुकी´ के जरिए रफी ने सफलता की ऊंचाइयों पर चढ़ना शुरू किया और उसके बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। साठ के दशक में दिलीप कुमार, देवानंद, शम्मी कपूर, राजेन्द्र कुमार, शशि कपूर, राजकुमार जैसे नामचीन नायकों की आवाज कहे जाने वाले रफी नेे अपने तीन दशक से भी ज्यादा लंबे कंरियर में लगभग 26000 फिल्मी और गैर फिल्मी गाने गाये। उन्होंने हिन्दी के अलावा मराठी, तेलुगू और पंजाबी फिल्मों के गीतों के लिए भी अपना स्वर दिया। रफी के गाए गीतों में से कुछ सदाबहार गीतों को याद कीजिए- तू गंगा की मौज (बैजू बावरा-1952), नन्हे मुन्ने बच्चे तेरी मुट्ठी में क्या है (बूट पालिश-1953), उड़े जब जब जुल्फें तेरी (नया दौर-1957), दो सितारों का जमीं पर है मिलन (कोहीनूर-1960), सौ साल पहले हमें तुमसे प्यार था (जब प्यार किसी से होता है-1961), हुस्न वाले तेरा जवाब नहीं (घराना-1961), तेरी प्यारी प्यारी सूरत को किसी की नजर न लगे (ससुराल-1961), ए गुलबदन ए गुलबदन (प्रोफेसर-1962), तुझे जीवन की डोर से बांध लिया है (असली नकली-1962), मेरे महबूब तुझे मेरी मोहब्बत की कसम (मेरे महबूब-1963), दिल एक मंदिर है (दिल एक मंदिर-1963), जो वादा किया वो निभाना पड़ेगा (ताजमहल-1963), ये मेरा प्रेम पत्र पढ़कर (संगम-1964), छू लेने दो नाजुक होठों को (काजल-1965), पुकारता चला हूं मैं (मेरे सनम-1965), बहारों फूल बरसाओ मेरा महबूब आया है (सूरज-1966), दिल पुकारे आ रे आरे आरे (ज्वैल थीफ-1967), मैं गाऊं तुम सो जाओ (ब्रह्मचारी-1968), बाबुल की दुआंए लेती जा (नीलकमल-1968), बेखुदी में सनम (हसीना मान जायेगी-1968), आने से उसके आए बहार (जीने की राह-1969), ओ हसीना जुल्फो वाली (तीसरी मंजिल-1969), खिलौना जानकर मेरा दिल तोड़ जाते हो (खिलौना-1970), आजा तुझको पुकारे मेरे गीत (गीत-1970), िझलमिल सितारों का आंगन होगा (जीवन मृत्यु-1970), यूं ही तुम मुझसे बात करती हो (सच्चा झूठा-1970), कितना प्यारा वादा है (कारवां-1971), इतना तो याद है मुझे (महबूब की मेेंहदी-1971), कुछ कहता है ये सावन (मेरा गांव मेरा देश-1971), चुरा लिया है तुमने जो दिल को (यादों की बारात-1973), तेरी बिंदिया रेे (अभिमान-1973), वादा करले साजना (हाथ की सफाई-1974), पर्दा है पर्दा (अमर अकबर एंथानी-1977), क्या हुआ तेरा वादा (हम किसी से कम नहीं-1977), आदमी मुसाफिर है (अपनापन-1978), चलो रे डोली उठाओ (जानी दुश्मन-1979) दर्दे दिल दर्दे जिगर (कर्ज-1980), मैंने पूछा चांद से (अब्दुल्ला-1980), मेरे दोस्त किस्सा ये क्या हो गया (दोस्ताना-1980) और जनम जनम का साथ है (भींगी पलकें-1982)। मोहम्मद रफी को मिले सम्मानों को देखें तो उन्हें गीतों के लिए 6 बार फिल्म फेयर का अवार्ड मिला है। उन्हें पहला फिल्म फेयर अवार्ड वर्ष 1960 में प्रदर्शित फिल्म (चौंदहवी का चांद) फिल्म के `चौंदहवी का चांद हो या आफताब हो´ गाने के लिए दिया गया था। इसके अलावा उन्हें `तेरी प्यारी प्यारी सूरत को किसी की नजर न लगे´ (ससुराल 1961) के लिए भी मोहम्मद रफी को सर्वश्रेष्ठ गायक का फिल्म फेयर पुरस्कार प्राप्त हुआ। वर्ष 1966 में फिल्म (सूरज) के गाने `बहारों फूल बरसाओ मेरा महबूब आया है´ के लिए मोहम्मद रफी को सर्वश्रेष्ठ गायक और वर्ष 1968 में (ब्रम्ह्चारी) फिल्म के गाने `दिल के झरोकों में तुझको छुपाकर) के लिए सर्वश्रेष्ठ गायक के फिल्मफेयर पुरस्कार से सम्मानित किए गये। इसके पश्चात उन्हें फिल्म फेयर अवार्ड के लिए लगभग 10 वर्ष इंतजार करना पड़ा। वर्ष 1977 में नासिर हुसैन की (हम किसी से कम नहीं) में गाए उनके गीत `क्या हुआ तेरा वादा´ के लिए उन्होंने सर्वश्रेष्ठ पाश्र्व गायक के रूप में फिल्म फेयर अवार्ड हासिल किया। इसी गाने के लिए वह नेशनल अवार्ड से भी सम्मानित किए गये। संगीत के क्षेत्र में मोहम्मद रफी के महत्वपूर्ण योगदान को देखते हुए भारत सरकार ने उन्हें वर्ष 1965 में पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया। रफी के पसंदीदा संगीत निर्देशकों के तौर पर नौशाद का नाम सबसे उपर आता है। रफी के पहले तलत महमूद नौशाद के चहेते गायक थे लेकिन एक रिकार्डिंग के दौरान तलत महमूद को सिगरेट पीते देखकर नौशाद गुस्सा हो गए और बाद में उन्होंंने (बैजू बावरा) फिल्म के लिए तलत महमूद की जगह मोहम्मद रफी को गाने का मौका दिया। भारत, पाकिस्तान विभाजन के बाद नौशाद और रफी ने भारत में ही रहने का फैसला किया। इसके बाद जब कभी नौशाद को अपनी फिल्मों के लिए गायक कलाकार की जरूरत होती थी वह मोहम्मद रफी को ही काम करने का मौका दिया करते थे। उनके इस व्यवहार को देखकर बहुत लोग नाखुश थे। फिर भी नौशाद ने लोगों की अनसुनी करते हुए मोहम्मद रफी को ही अपनी फिल्मों में काम करने का अधिक मौका देना जारी रखा। नौशाद, मोहम्मद रफी की जोड़ी के कुछ गानों में `न तू जमीं के लिये´ (दास्तान), दिलरूबा मैंने तेरे प्यार में क्या क्या न किया (दिल दिया दर्द लिया), ए हुस्न जरा जाग तुझे इश्क जगाये (मेरे महबूब), तेरे हुस्न की क्या तारीफ करूं (लीडर), कैसी हसीन आज बहारों की रात है (आदमी), कल रात जिंदगी से मुलाकात हो गई (पालकी), हम हुए जिनके लिए बबाZद (दीदार), मधुबन में राधिका नाची रे (कोहीनूर), नैन लड़ जइहे तो मनवा में कसक (गंगा जमुना), जैसे सुपर हिट नगमें शामिल हैं। मोहम्मद रफी के गाए गीतोंं को नौशाद के अलावा एसडी बर्मन, ओपी नैयर, मदन मोहन, शंकर जयकिशन, लक्ष्मीकांत प्यारे लाल और रवि ने भी अपने संगीत से संवारा है। एसडी बर्मन के संगीत निर्देशन में रफी ने देवानंद के लिए कई सुपरहिट गाने गाए जिनमें `दिल का भंवर´, `बेखुदी में सनम´, `खोया खोया चांद´ जैसे गाने शामिल हैं। पचास और साठ के दशक में ओपी नैयर के संगीत निर्देशन में भी रफी ने गीत गाये। ओपी नैयर मोहम्मद रफी के गाने के अंदाज से बहुत प्रभावित थे। उन्होंंने किशोर कुमार के लिए मोहम्मद रफी से `मन मोरा बांवरा´ गीत फिल्म (रंगीली) के लिए गवाया। शम्मी कपूर के लिए भी रफी और ओपी नैयर की जोड़ी ने `यूं तो हमने लाख हसीं देखे हैं, तुमसा नहीं देखा´, `तारीफ करूं क्या उसकी जिसने तुम्हें बनाया´ और `कश्मीर की कली´ जैसे सदाबहार गीत गाकर शम्मी कपूर को उनके कंरियर की ऊंचाइयों तक पहुंचाने में अहम भूमिका निभाई है। मदन मोहन के संगीत निर्देशन में भी मोहम्मद रफी की आवाज बहुत सजती थी। इन दोनों की जोड़ी ने `तेरी आंखों के सिवा इस दुनिया में रखा क्या है´, `ये दुनिया ये महफिल मेरे काम की नहीं´ और `तुम जो मिल गए हो´ जैसे न भूलने वाले गीत बनाए हैं। साठ और सत्तर के दशक में मोहम्मद रफी की जोड़ी संगीतकार लक्ष्मीकांत, प्यारेलाल के साथ काफी पसंद की गई। रफी और लक्ष्मी-प्यारे की जोड़ी वाली पहली हिट फिल्म (पारसमणि) थी। इसके बाद इन दोनों की जोड़ी ने कई सुपरहिट फिल्मों मे एक साथ काम किया। वर्ष 1964 में जहां फिल्म (दोस्ती) के लिए मोहम्मद रफी सर्वश्रेष्ठ पाश्र्वगायक के फिल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित किए गए वहीं लक्ष्मीकांत, प्यारेलाल को भी इसी फिल्म के लिए सर्वश्रेष्ठ संगीतकार का फिल्म फेयर पुरस्कार प्राप्त हुआ। हालांकि फिल्म की शुरुआत के समय यह गाना महिला पाश्र्व गायक की आवाज में रिकार्ड होना था लेकिन गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी के कहने पर संगीतकार लक्ष्मीकांत प्यारेलाल ने इस गाने को रफी की ही आवाज दी।

लता मंगेशकर से हुयी थी मोहम्‍मद रफी की अनबन

लता से हुई थी रफी की अनबन
अपनी आवाज की बदौलत संगीत प्रेमियों के दिलों पर राज करने वाले मोहम्मद रफी ने अपने गाए गीत 'मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया...जो मिल गया उसी को मुकद्दर समझ लिया...' को बखूबी अपनी जिंदगी में भी उतारा। हालाँकि उनके इस रुख के कारण सुरों की मलिका लता मंगेश्कर के साथ एक बार उनकी बातचीत बंद हो गई थी।

रफी साहब ने गाने के एवज में मिलने वाली राशि की कभी परवाह नहीं की। उन्हें निर्माता जितना देते थे वह उसी से संतोष कर लेते थे। अपने इसी स्वभाव के कारण एक बार लता मंगेशकर के साथ उनका विवाद हो गया। लता मंगेश्कर गानों पर रायल्टी की पक्षधर थीं जबकि रफी ने कभी भी रायल्टी की माँग नहीं की। दोनों का विवाद इतना बढ़ा कि फिल्म जगत में अपने मिलनसार स्वभाव के लिए पहचाने जाने वाले रफी साहब और लता के बीच बातचीत भी बंद हो गई।

कई वर्षों तक चले विवाद के कारण दोनों ने एक साथ कोई गीत भी नहीं गाया। रफी साहब मानते थे कि एक बार जब निर्माताओं ने गाने के पैसे दे दिए तो फिर रायल्टी किस बात की माँगी जाए। हालाँकि चार वर्ष के बाद नरगिस के प्रयास से दोनों के संबंधों पर जमी बर्फ पिघली और दोनों ने एक साथ एक कार्यक्रम में 'दिल पुकारे...' गीत गाया।

हाल ही में मोहम्मद रफी पर प्रकाशित पुस्तक 'मेरी आवाज सुनो' में लेखक विनोद विप्लव ने रफी साहब की जिंदगी के कई रोचक पहलुओं को उजागर किया है। पुस्तक के मुताबिक सुरों के सौदागर फिल्म जगत के मौजूदा महानायक अमिताभ बच्चन के बड़े प्रशंसक थे। जिस दिन उन्होंने बच्चन के साथ पहली बार 'चल-चल मेरे भाई तेरे हाथ जोड़ता हूँ...' गाना गाया था। उस दिन बिल्कुल बच्चों की तरह अभिभूत हो गए थे।

रफी साहब के पुत्र शाहिद के मुताबिक उन्हें फिल्में बहुत अधिक पसंद नहीं थीं लेकिन दीवार में अमिताभ का अभिनय देखकर वह उनके प्रशंसक बन गए थे। पहली बार बिग बी के लिए गाने के बाद जब रफी साहब घर लौटे तो बिल्कुल बच्चों की तरह उत्साह से लबरेज होकर उन्होंने सबको बिग बी के साथ गाने की पूरी घटना सुनाई। हालाँकि उनके पसंदीदा अभिनेताओं में शम्मी कपूर और धर्मेन्द्र भी शामिल हैं।

यदा-कदा ही फिल्में देखने वाले रफी साहब को फिल्म शोले काफी पंसद थी और उन्होंने इसे तीन बार देखा था, लेकिन रफी ने कभी कोई फिल्म पूरी नहीं देखी। वह जब भी फिल्म देखने जाते तो फिल्म शुरू होने के कुछ समय बाद थियेटर में घुसते और पूरी होने के थोड़ी देर पहले ही बाहर निकल आते।

हिन्दी फिल्मों के लिए करीब पाँच हजार गीत गाने वाले मोहम्मद रफी एक ही धुन के पक्के थे इसी कारण उन्होंने अभिनेता बनने के कई मौकों को खारिज कर दिया। हालाँकि एक-दो बार उन्होंने कैमरे का सामना किया, लेकिन वह भी फिल्म 'लैला मजनूं' में तेरा जलवा जिसने देखा... गीत में स्वर्णलता और नजीर के साथ समूह में। इसके अलावा कुछ पलों के रोल के लिए फिल्म 'जुगनू' में भी वह दिखाई पड़े, लेकिन इसके बाद उन्होंने कभी कैमरे के सामने आने की इच्छा नहीं जताई।

इसी तरह कई बार संगीत देने का प्रस्ताव मिलने के बावजूद भी उन्होंने उन्हें खारिज कर दिया। उन्होंने एक बार अपने साक्षात्कार में कहा था कि कुछ अरसा पहले निर्माता-निर्देशक एस. मुखर्जी ने एक फिल्म के लिए संगीत देने का प्रस्ताव रखा था, लेकिन मैं यह मानता हूँ कि किसी भी आदमी को एक ही पेशे में माहिर होना चाहिए।

माया नगरी में संघर्ष के बाद एक मुकाम हासिल करने वाले रफी साहब ने फिल्मी गीतों के अलावा गैर फिल्मी गीत भी गाए, जिनमें देशभक्ति, याहू शैली, कव्वाली आदि शैली के गीतों के अलावा हर भाव और राग के गीत शामिल हैं।

रफी अपने दौर के लगभग सभी अभिनेताओं की आवाज बने। इनमें याहू शैली के शम्मी कपूर से लेकर हास्य अभिनेता जॉनी वाकर, भारत भूषण, दिलीप कुमार, जुबली कुमार के नाम से मशहूर राजेन्द्र कुमार तक शामिल हैं।

रफी ने सदाबहार अभिनेता देव आनंद के लिए 'दिन ढल जाए और जिया ओ जिया कुछ बोल दो...' जैसे गीत गाए। धर्मेन्द्र, जितेन्द्र, किशोर कुमार और राजेश खन्ना के लिए रफी साहब ने कई फिल्मों में आवाज दी है।

वेब दुनिया में प्रकाशित - मेरी आवाज सुनो की समीक्षा 
http://hindi.webdunia.com/news/news/national/0707/15/1070715016_1.htm

Tuesday, June 3, 2008

Mohammad Rafi - The Real God of Our Time


Mohammad Rafi - The Real God of Our Time
by Mr. Vinod Viplav.
Mohammad Rafi transformed thousands of ordinary songs into unforgettable & immortal with the touch of his charismatic voice. After the departure of this great legend, incalculable numbers of new singers came to light and many of his contemporary singers claimed to be best, but all disappeared in the dark. On other hand the magical effect of the songs of Rafi Sahab on the hearts of millions of music lovers is becoming deeper day by day.
It is said that time heals each and every wound, but there is a wound which is still uncured after passing of years, in fact this wound is becoming more and more painful day by day. This wound is nothing but the sad departure of Mohammad Rafi from this mortal world.
For many devotees, the passing of Mohammad Rafi was not less painful than the passing of any dearer family member. There are numerous music lovers who considered the death of Rafi Sahab more tragic than the death of any nearest family member or dearest friend. One can forget the passing of his family member in ten, twenty or thirty years, but the grief of the separation from Mohammad Rafi is becoming deeper and deeper with the passage of time. It is appropriate to say that Mohammad Rafi is the one and the only one icon of India for whom there is unspeakable amount of love and affection in the hearts of millions. There are many music lovers who sink in the ocean of their own tears when Rafi Sahab comes in their memory.
The reason is simple. Actually Mohammad Rafi is not just a singer for Rafi lovers, but he is a true friend in the time of pain and pleasure, he is the greatest guide who shows the right path in the darkness of the life and he is the reliever of pain and distress. Any person, no matter who he is and in which condition he is, can take the shelter of the songs of Rafi Sahab for the comfort of his aggrieved heart. The songs of Mohammad Rafi are like a cool shadow of a giant banyan tree where a sufferer of the “burning sun” of distress, poverty, harness of society, neglect, infidelity, cheating, despair and mental trauma gets much needed comfort. His voice gives great solace and mental peace like the lap of a caring mother, helping hands of an affectionate lover, supporting shoulder of a father and valuable lesson of an experienced teacher.

There are a number of Rafi’s songs, which express the pain of the person who has insulated, snubbed and ill-treated in this selfish society and egocentric world. It is the power of Rafi Sahab to convey the suffering of a person who is yearning for ones love. There are many songs of Rafi Sahab which redefined the Hindi film music. Those singers who claim to be the best or superb are really unable to imitate the voice of Rafi Sahab. Mohammad Rafi has made a number of songs immortal with the power of his impressive voice that comes directly from the deep of the heart.
The importance of Mohammad Rafi, the epitome of music, is not only because of he sung all kinds of thousands of songs and his songs expresses the various aspects of life but also because of he is the greatest symbol of human values, patriotism, secularism and communal harmony in the age of social, ethnic and religious conservations. In the time of moral, social and emotional devaluation, his songs are still motivating us for human relations, morality and humanity. A number of years have passed after the departure of Mohammad Rafi, but the magic of his melodious voice continue to revitalize, energies and refresh millions of his fans and music lovers. This happens not only in India but each and every corner of the world. Mohammad Rafi is continue to live alive in the hearts of thousands of Rafi lovers and will be alive hundreds of forthcoming years.
In the age of short-lived popularity, it is amazing to see that there is a world of thousands of music lovers where after bread, clothing and shelter, voice of Mohammad Rafi is the basic necessity of life without which life is impossible. With the passing of time magic of enchanting and delightful voice of Mohammad Rafi become more and more fascinating.
Mohammad Rafi is not only a great singer and great human being; Mohammad Rafi became a good for music lovers. There is no shortage of such people who worship him in same manner as any human being worship God. Is there is any human being who is worshipped like a god. There are a number of persons like Umesh Makhija of Ahmedabad who have made temples of Rafi Sahab in their small home. I am totally agreed with these Rafi lovers. Why should we not worship Mohammad Rafi like a God? What God is supposed to give us? Nothing more than the peace of the mind. In the some way, songs of Mohammad Rafi provide us not only the peace of the mind but also ease our suffering and pain. There is such magic in his voice that after touching our ears, alleviate our all pain, despair, depression, frustration and mental tauma. There is no medicine in the ultramodern hospitals of this world which can take away the pain of the heart and mind within second. Only one thing can do this charisma and that is the voice of Mohammad Rafi. That is why we worship him.
You can hear the full version of the tribute to Rafi Sahab on the following links:
http://www.youtube.com/watch?v=i5vpeT6qwQU
http://www.youtube.com/watch?v=kf-75Y5GJJg&feature=related
Note: I want to request all readers to ignore grammatical mistakes because I am not a prolific English writer. I am a Hindi writer. Those who disagree with my point of view are invited to share views.
About writer:
Vinod Viplav is a journalist working in a National News Agency at New Delhi. He has written the first Biography of Mohammad Rafi – Meri Awaz Suno (Hindi). He has a good collection of video files of Rafi Sahab and with the help of these files he has made a one hour video about the Life and the Music of Mohammad Rafi. This video is available in CD. Vinod Viplav can be contacted on his email – vinodviplav@gmail.com and on his mobile no.- 09868793203.
To read more about the biography you can visit following link on mohdrafi.com.
Second Edition of the biography of Mohammad Rafi - Meri Awaz Suno has been published
Biography of legendary singer Mohammad Rafi - Meri Awaz Suno

Tuesday, April 29, 2008

filmi couples on screen and in real life

फ़िल्मी रोमांस, असली जोड़ियाँ
ऐसा क्यों होता है कि रुपहले परदे पर कुछ जोड़ियों को देख कर यह अहसास होता है जैसे उनका प्रेम प्रदर्शन दिखावटी या बनावटी नहीं है.
लगता है जैसे वे बने ही एक दूसरे के लिए हैं.
इसी को शायद केमिस्ट्री कहते हैं. यानी दो व्यक्तियों का एक दूसरे से लगाव उनके अभिनय से ही नहीं उनकी भाव-भंगिमा से भी झलकता है.
जानकार कहते हैं कि यह तभी मुमकिन हो पाता है जब अभिनय करने वाले उन लोगों का असली ज़िंदगी में भी एक दूसरे से भावनात्मक लगाव होता है और वही परदे पर भी साफ़ दिखाई देने लगता है.
आइए ऐसी ही कुछ फ़िल्मी जोड़ियों पर एक नज़र डालें जो असलियत में भी एक दूसरे के बहुत क़रीब रही हैं.
राज कपूर-नरगिस
इस जोड़ी ने परदे पर प्रेम को एक नई परिभाषा दी.
दोनों ने कुल सोलह फ़िल्मों में साथ काम किया और भारत में ही नहीं विदेशों में भी यह जोड़ी काफ़ी लोकप्रिय हुई.
बाद में नरगिस ने सुनील दत्त से शादी कर ली और न केवल आरके फ़िल्म्स को बल्कि फ़िल्मी दुनिया को ही अलविदा कह दिया.
देव आनंद-सुरैया
सुरैया और देवानंद ने विद्या, जीत, शायर, दो सितारे और सनम जैसी कई फ़िल्मों में एक साथ काम किया और फिर उनकी एक रोमांटिक जोड़ी ही बन गई.
सुरैया, जो एक मशहूर गायिका भी रही हैं, उस ज़माने के देवानंद को एक ऐसा ख़ूबसूरत, गबरू जवान बताती हैं जिसके चेहरे से लड़कपन झलकता था.
उधर देवानंद सुरैया से इतने प्रभावति थे कि उन्होंने ख़ुद को सुरैया के आदर्श पुरुष हॉलीवुड के अभिनेता ग्रेगरी पेक के साँचे में ढालने की पूरी कोशिश की.
इस रोमांस की परिणति तब हुई जब देवानंद ने सुरैया से शादी का प्रस्ताव किया और उन्हें हीरे की अंगूठी भेंट में दी.
कहा जाता है कि सुरैया की नानी ने वह अंगूठी समुद्र में फेंक दी.
दिलीप कुमार-मधुबाला
यह एक और ऐसी जोड़ी थी जिसके रोमांस को घरवालों की नज़र लग गई और इस मामले में मधुबाला के पिता अताउल्ला ख़ान आड़े आए.
मधुबाला के क़रीब रहीं पत्रकार गुलशन ईविंग कहती हैं, उनकी ज़ुबान पर एक ही नाम होता था-यूसुफ़.
बीआर चोपड़ा की नया दौर के दौरान दोनों के रिश्तों में कड़वाहट आई जब मधुबाला के पिता ने उन्हें दिलीप कुमार के साथ आउटडोर शूटिंग में जाने की इजाज़त नहीं दी.
मामला इतना बढ़ा कि अदालत तक पहुँच गया और दिलीप कुमार को वहाँ उनके ख़िलाफ़ गवाही देनी पड़ी.
बाद में इस फ़िल्म में वैजयंती माला को हीरोइन के तौर पर साइन कर लिया गया.
इस के बाद भी दिलीप कुमार और मधुबाला ने मुग़ले आज़म में काम किया लेकिन रिश्तों में इतनी खटास आ गई थी कि कहा जाता है कि दोनों सेट पर एक दूसरे से बात भी नहीं करते थे.
गुरु दत्त-वहीदा रहमान
वहीदा रहमान को गुरु दत्त ने सीआईडी में पहली बार साइन किया. बाद में इस जोड़ी ने प्यासा, काग़ज़ के फूल और चौदहवीं का चाँद में एक साथ काम किया.
कहते हैं काग़ज़ के फूल तो एक तरह से गुरु दत्त की आत्मकथा ही थी.
दोनों आख़िरी बार साथ साहिब, बीबी और ग़ुलाम में आए और फिर गुरु दत्त ने 1964 में आत्महत्या ही कर ली.
अजय देवगन-काजोल
काजोल और अजय की मुलाक़ात हलचल के सेट पर हुई और जैसाकि काजोल का कहना है, मैं जानती थी कि मेरे लिए वही है. यह सब कुछ बहुत ही स्वाभाविक था.
दोनों की कई फ़िल्में हालाँकि अच्छा व्यापार नहीं कर पाईं लेकिन इश्क़ और प्यार तो होना ही था, हिट रहीं.
शादी के बाद दोनों ने प्रकाश झा की दिल क्या करे और अपने ही प्रोडक्शन में बनी राजू चाचा में काम किया.
काजोल हाल ही में माँ बनी हैं और अजय अपनी व्यस्तता के बावजूद काफ़ी समय बच्ची के साथ गुज़ारते हैं.
जोड़ियाँ और भी बनीं. अमिताभ बच्चन-रेखा, ऐश्वर्या राय-सलमान ख़ान और शम्मी कपूर-गीताबाली वग़ैरह...
फ़िल्म दर्शकों ने बार-बार यह दिखा दिया कि असली जीवन में एक दूसरे के क़रीब होने वालों को उन्होंने फ़िल्म के परदे पर भी दिल से स्वीकार किया है.

Wednesday, April 2, 2008

Rafi Ki Yaaden…….by K.S. Ramachandran

Time and tide waits for none. Every year comes and goes. Things keep happening. Unfortunately, we cannot forget the daily routine and unfailingly do not miss our eating schedules. Is Paapi Paete Ki Qatir…There is even a common saying….”Time is the best healer”…..But then… Has the wound healed?? Never Ever…Rafi Sahab’s untimely demise on the sad 31st July 1980 was a blow to the musical world and the Rafians. Nothing can compromise the loss…..not even the passing of time would heal the wound. In fact we miss Rafi Sahab more and more as years pass by…..The unexplainable misery and pain cannot be explained.
Kaise Kategi Zindagi…..Tere Begair.Tee Begair……..
Yaad Na Jaaye Beete Dinoki…..
Beete Dinoki Yaad Sataati Hai Aajbi. Kya Woh Zamane Phir Kabhi Wapas Na Aayenge.
Kya Hum Tamaam Umrubar Roye Jaayenge….Beete Dinoki Yaad Sataati Hai Aajbi….
Mohd Rafi has been a singer par excellence and any amount of praise for this great soul would be an understatement. More you praise Rafi Sahab, one feels that he needs something more. No words can express this great gentleman, human being of great values and above all an awesome singer with a golden voice which the Almighty created only once in the human race!
Some of the songs sung by Rafi Sahab with ease and comfort cannot be even attempted by anyone, even with a good formal training. The expressions, range, and the soothing originality of the vocal chord can never be equaled by anyone even for generations to come.
The growing missing link in music is even felt today after 28 years of his untimely demise and we are listening to his glorious voice every day unfailingly, discuss about his unparallel achievements and also keep exchange telephone calls by trying to sing his numbers. What a great soul.
I am sure his family members must be proud to realise that there are growing rafi fans and pujari’s even from the current generations and is ever increasing. Long live Rafi Sahab and his contribution to music. Truly he is a BaadShah in playback singing.
I am attempting to sing his songs everyday as a prayer as I love him to my heart, like many of us do.
Following are some of my renditions as sharaddhanjali to the great legend. Please click the links to listen:
Phalakpe Jitne Sitaaren Hein from Mere Huzoor
http://www.supload.com/listen?s=QOKYAKBRMT0A
Aaj Puraani Raahon Se from Aadmi
http://www.supload.com/listen?s=E6EEF3W47IK5
Man Tarpat from Baiju Bawra – Video
http://youtube.com/profile?user=chandan0106
Thanks and regards
K.S. Ramachandran Residence: "Amritha", 2nd Floor, E58A, 21st Cross Street, Besant Nagar, Chennai 600 090, India. Res Tel: 044-2446 8896 / 044-2446 1790; Mobile: 98410-71388; Email: chandan0106@gmail.com ; ksrc0106@gmail.com