Wednesday, March 28, 2007

Mohammad Rafi - a Profile

पंजाब में अमृतसर से उत्तर-पूर्व दि\शा में जाने वाली सड़क पर करीब 25 किलोमीटर चलने पर छोटा सा कस्बा आता है, मजीठा। वहा¡ से आगे बढ़ने पर मुख्य सड़क पर बायीं तरफ एक \शादीघर है, जिसके सामने से एक और सड़क निकलती है, जिस पर दो गा¡व छोड़कर आगे बढ़ने पर एक गा¡व आता है, कोटला-सुल्तानसिंह। अमृतसर तहसील में पड़ने वाले इस मुस्लिम बहुल गा¡व में विभाजन से पहले ज्यादातर मुस्लिम परिवार सुन्नी थे, लेकिन यहा¡ f\शया समुदाय के लोग भी थे। गा¡व के सभी समुदायों के लोग मिल-जुल कर रहते थे तथा एक दूसरे का सुख-दु:ख में साथ देते थे। लोग एक-दूसरे के èाार्मिक समारोहों और पर्व-त्यौहारों में \शामिल होते थे।हो सकता है कि बहुत से लोगों के लिये इस गा¡व की कोई खास अहमियत नहीं हो, लेकिन संगीत प्रेमियों के लिये यह गा¡व तीर्थ स्थान से कम महत्वपूर्ण नहीं है। इसी गा¡व में 24 दिसंबर 1924 को संगीत के एक सितारे का जन्म हुआ था, जो आगे चलकर मोहम्मद रफी के नाम से प्रसिद्ध हुआ। आज भी इस गा¡व में मोहम्मद रफी के प्र\शंसकों का आना-जाना लगा रहता है। कुछ लोग उस जगह पर जाकर नमन करते हैं, जहा¡ उनका मकान था। कुछ लोग वहा¡ की मिêी अपने साथ ले जाते हैं। बचपनमोहम्मद रफी के पिता का नाम हाजी अली मोहम्मद और माता का नाम अल्लारुखी था। यह सुन्नी परिवार था। इस परिवार का पूरे गा¡व में खास कर अपने समुदाय में काफी सम्मान था। उनके पिता गा¡व में होने वाले त्यौहारों और \शादी-विवाहं के मौकों पर सात रंगों में लजीज पुलाव बनाते थे। रफी के बड़े भाई मोहम्मद दीन की हजामत की दुकान थी, जहा¡ उनके बचपन का काफी समय गुजरा। वह जब करीब सात साल के थे तभी उनके बड़े भाई ने इकतारा बजाते हुए और गीत गाते हुए चल रहे एक फकीर के पीछे-पीछे उन्हें चलते हुए देखा। यह बात जब उनके पिता के कानों तक पहु¡ची तो उन्हें काफी डा¡ट भी पड़ी। कहा जाता है कि उस फकीर ने रफी को आ\शीर्वाद दिया था कि वह आगे चलकर खूब नाम कमायेगा। एक दिन दुकान पर आये कुछ लोगों ने रफी को फकीर के गीत को गाते सुना। वह उस गीत को इस कदर सèो हुए सुर में गा रहे थे कि वे लोग उसे सुनकर आ\श्चर्य में पड़ गये। रफी के बड़े भाई साहब ने अपने भाई के भीतर की संगीत की जन्मजात प्रतिभा को पहचाना और वह उन्हें गाने के लिये प्रोत्साहित करते रहे।लाहौर मेंसन् 1935 में रफी के पिता रोजगार के सिलसिले में लाहौर चले गये थे। कुछ महीने बाद रफी और उनके परिवार के बाकी लोग भी लाहौर चले गये। लेकिन रफी के चाचा और चचेरे भाइयों समेत रफी की बिरादरी के कई सदस्य इसी गा¡व में रह गये। रफी ने लाहौर जाने के पूर्व इसी गा¡व में अपनी प्राइमरी की पढ़ाई पूरी कर ली थी। लाहौर में रफी दोस्तों के बीच गाते रहते थे। जब वह करीब 14 साल के हुए तब उन्होंने गायक बनने की इच्छा व्यक्त की, लेकिन उनके पिता इसके सख्त खिलाफ थे। लेकिन रफी के बड़े भाई ने, जो रफी की इस प्रतिभा से वाकिफ थे, अपने भाई की प्रतिभा को बेकार नहीं जाने देने तथा उनकी प्रतिभा को निखारने का फैसला किया। सौभाग्य से उनके बड़े भाई की प्रसिद्ध गायक उस्ताद उस्मान खान अब्दुल वहीद खान से अच्छी जान-पहचान थी। इसलिए मोहम्मद रफी को उस्ताद उस्मान खान की \शागिर्दगी हासिल करने में कोई दिक्कत नहीं हुई। रफी ने पंडित जीवन लाल तथा उस्ताद बड़े गुलाम अली खा¡ जैसे \शास्त्राीय संगीत के दिग्गजों से भी संगीत विद्या सीखी। सहगल से पहली मुलाकातरफी उस समय के म\शहूर गायक और अभिनेता कुन्दन लाल सहगल के दीवाने थे और उन्हीं के जैसा बनना चाहते थे। मोहम्मद रफी उन दिनों अपने दोस्तों के घरों और छोटे-मोटे जलसों में सहगल के गाये हुए गीत गाते थे। उनका सौभाग्य रहा कि उसी दौरान उनकी मुलाकात सहगल से हुई और उनका आ\शीर्वाद भी प्राप्त हुआ। उस समय उनकी उम्र 15 व\र्ष की रही होगी। हुआ यू¡ कि एक दिन लाहौर के एक समारोह में सहगल गाने वाले थे। उन्हें रूबरू सुनने की उत्सुकता से रफी भी अपने भाई के साथ पहु¡च गयेे। संयोग से समारोह में स्टेज की माईक खराब हो गई। लोगों ने \शोर मचाना \शुरू कर दिया। व्यवस्थापक परे\शान थे कि लोगों को कैसे \शान्त किया जाये। उसी समय मोहम्मद रफी के बड़े भाई व्यवस्थापक के पास पहु¡चकर उनसे अनुरोèा करने लगे कि जब तक माईक ठीक नहीं हो जाती है, तब तक लोगों को \शान्त रखने के लिये उनके भाई को गाने का मौका दिया जाये।व्यवस्थापक को यह सुझाव पसन्द नहीं आया, क्योंकि माईक के बगैर गाना कोई मजाक नहीं था। परन्तु वे भी काफी परे\शान थे। कोई दूसरा रास्ता न देखकर उन्होंने रफी को गाने की इजाजत दे दी। रफी की आवाज की यह कसौटी थी और रफी इस कसौटी पर खरा उतरे। माईक न रहते हुए भी उन्होंने गाकर लोगों को \शान्त कर दिया। उस समय तक सहगल साहब भी पहु¡च गये थे। वह कुतूहल और प्र\शंसा भरी निगाहों से उस छोटे गायक को देखते ही रह गये। रफी माईक के बगैर ही अपनी बुलन्द आवाज में गा रहे थे और सुनने वाले बराबर `वन्स मोर´ कहकर उनका उत्साह बढ़ा रहे थे। इतने में माईक ठीक हो गई और सहगल ने अपनी मèाुर आवाज में अपना गाना \शुरू किया। लेकिन उससे पहले वह इस उभरते हुए गायक को \शाबा\शी देना नहीं भूले। रफी के सिर पर हाथ रखकर आ\शीर्वाद देते हुए उन्होंने कहाµ``इसमें कोई \शक नहीं कि एक दिन तुम्हारी आवाज दूर-दूर तक फैलेगी।´´ बाद में रफी को संगीतकार फिरोज निजामी के मार्गद\र्शन में लाहौर रेडियो पर गाने का मौका मिला। लाहौर रेडियो से उन्हें प्रसिfद्ध मिली और वह लाहौर फिल्म उद्योग में अपनी जगह बनाने की कोf\श\श करने लगे। उसी समय रफी की \शादी रि\श्ते में बहन लगने वाली बf\शरन से हुई। यह \शादी कोटला-सुल्तानसिंह में हुई। उस समय रफी की उम्र 20 साल थी। उन्हीं दिनों उस समय के म\शहूर संगीतकार \श्याम सुन्दर और \शी\र्ष अभिनेता और निर्माता नासिर खान से रफी की मुलाकात हुई। उन्होंने रफी के गानों को सुना और उन्हें बम्बई आने का निमंत्राण दिया। मोहम्मद रफी ने इस बारे में एक साक्षात्कार में कहा था, `नासिर खान ने मुझे बंबई ले जा कर फिल्मी गायक बनाने के लिये अब्बाजान से इजाजत मा¡गी। लेकिन अब्बाजान ने इससे एकदम इंकार कर दिया, क्योंकि वह गायकी को इस्लाम विरोèाी मानते थे। जब नासिर खान इस प्रस्ताव पर अड़े रहे तो मेरेे बड़े भाई ने अब्बाजान को मुझे बम्बई जाने देने पर राजी कर लिया। मेरे अब्बाजान काफी ना नुकुर के बाद फिल्मी गायकी को मेरा पे\शा बनाने पर राजी हो गये।´ बम्बई में संघ\र्षमोहम्मद रफी किस्मत आजमाने अपने बड़े भाई के साथ बम्बई पहु¡चेे। लेकिन दोनों भाइयों को बम्बई आने पर पता चला कि यह डगर कितनी मुf\श्कल है। उनके पास पैसे भी बहुत कम थे। दोनों भिंडी बाजार में रहते थे और श्री \श्याम सुन्दर से मिलने की कोf\श\श में हर दिन दादर स्थित उनके स्टुडियो जाते थे। वे घर से तकिया के दो खोलों में चना भर लाये थे और कई दिनों तक चना खाकर ही गुजारा करते रहे। आखिरकार एक दिन वे श्री \श्याम सुन्दर से मिलने में सफल हुए और उन्होंने आपने वायदे के अनुसार रफी को पंजाबी फिल्म गुलबलोच में जीनत के साथ गाने का मौका दिया। यह 1944 की बात है। इस तरह रफी ने गुलबलोच के `सोनियेनी, हीरनियेनी तेरी याद ने बहुत सताया´ गीत के साथ पा\श्र्वगायन के क्षेत्रा में कदम रखा। इस पंजाबी गाने से लोकप्रियता मिलने के बाद रफी एक साल बाद एक बार फिर श्री \श्याम सुन्दर के बुलावे पर दोबारा बम्बई गये। इस बार उन्होंने गा¡व की गोरी में गाने गाये। यह उनकी पहली हिन्दी फिल्म थी।नौ\शाद का साथरफी ने उन्हीं दिनों उस समय के म\शहूर संगीतकार नौ\शाद से मुलाकात की। नौ\शाद ने एक साक्षात्कार में रफी से अपनी मुलाकात के बारे में बताया था कि रफी साहब उनके पास पहली बार उन्हें जानने वाले किसी व्यक्ति का सिफारि\शी पत्रा लेकर आये थे। पत्रा में कहा गया था कि यह व्यक्ति बेहद खूबसूरत आवाज का मालिक है और उसे गाने का मौका दिया जाये। नौ\शाद ने बताया, ``मैंने उस युवक से एक-दो गाने सुने और उससे काफी प्रभावित हुआ। मैंने उससे कहा कि वह एक दिन बड़ा गायक बनेगा। उसे मैंने संपर्क बनाये रखने की सलाह दी। \शुरू-\शुरू में मैंने उस युवक को कोरस में गाने के मौके दिये। एक ऐसा ही कोरस हैµ`हिन्दोस्तान के हम हैं, हिन्दोस्तान हमारा है´।´´मोहम्मद रफी ने नौ\शाद को अपने परिचय के \शुरूआती दिनों में ही बताया था कि वह सहगल के प्र\शंसक हैं और उनकी तमन्ना है कि वह सहगल के साथ कोई गाना गायें। नौ\शाद उन दिनों फिल्म \शाहजहा¡ के लिये काम कर रहे थे। यह सहगल के आखिरी दिनों की फिल्मों में से एक थी। नौ\शाद ने इस फिल्म के एक गीत में रफी को सहगल के साथ गाने का मौका दिया। रफी को केवल दो लाइनें गानी थीµ`मेरे सपनों की रानी---रूही, रूही, रूही´। इस गाने की पृ\ष्ठभूमि कुछ इस तरह की हैµसुहैल नामक कवि (सहगल) इस गीत के जरिये रूही नाम की एक सुन्दरी (जिसकी भूमिका सलमा आगा की मा¡ ने की थी) के रूप का बखान कर रहा है। कवि के इस गाने के कारण उस सुन्दरी की खूबसूरती की ख्याति चारों ओर फैल जाती है और रसिक लोग उस गीत को गाने लगते हैं। फिल्म में उन्हीं रसिकों में से एक रसिक को इस गाने की आखिरी दो पंक्तियों को गाते हुए दिखाया जाता है और यही दो पंक्तिया¡ मोहम्मद रफी ने गायी है।नौ\शाद ने इसके बाद 1946 में रफी की आवाज में अनमोल घड़ी का एक गीत रिकार्ड करायाµ`तेरा खिलौना टूटा बालक, तेरा खिलौना टूटा´। इस फिल्म में सुरैया, सुरेन्द्र और नूरजहा¡ ने अभिनय किया था तथा तीनों ने गाने भी गाये थे। यह अपने समय की सफलतम संगीतमय प्रेम कहानी थी। रफी की आवाज वाला गीत फिल्म में नेपथ्य गान की \शैली में फिल्माया गया था।पहली कामयाबीसन् 1947 में फिल्म जुगनू में फिरोज निजामी ने रफी से एक कोरस गाना साभिनय गवाया। बोल थे `वो अपनी याद दिलाने को´। यह गाना èामाल किस्म का होते हुए भी उत्तम तर्ज की वजह से लोगों को पसन्द आया। लेकिन जब इसी फिल्म में नूरजहा¡ के साथ `यहा¡ बदला वफा का बेवफाई के सिवा क्या है´ युगल गीत रिकार्ड करने का समय आया, तब फिरोज निजामी कतराने लगे। हाला¡कि वह रफी और उनकी क्षमता से भली-भा¡ति परिचित थे, फिर भी एक नये गायक को नूरजहा¡ जैसी प्रतिf\ष्ठत गायिका के साथ रखने में उन्हें हिचकिचाहट हो रही थी। रफी पर उनका जो वि\श्वास था वह इस गाने के समय लड़खड़ाने लगा। रफी की जगह किसे लाया जाये? तलत महमूद को लाने का सवाल ही नहीं था, क्योंकि तब तक उनकी फिल्मों में स्प\ष्ट पहचान नहीं बन पायी थी। मुके\श फिट बैठ सकते थे, सुरेन्द्र अथवा जी- एम- दुराZनी को भी लाया जा सकता था। निजामी साहब उलझन में थे। जब उन्होंने यह बात नूरजहा¡ को बतायी, तब नूरजहा¡ ने रफी को मौका देने के लिए कहा। वह 1945 में फिल्म जीनत में रफी के साथ एक युगल गीत गा चुकी थीं। हाला¡कि यह गीत उतना लोकप्रिय नहीं हुआ था, लेकिन वह रफी की प्रतिभा पहचान चुकी थीं। इसके अलावा उन्होंने गा¡व की गोरी फिल्म में रफी को सुना था और वह रफी से काफी प्रभावित थीं। उन्होंने निजामी से कहा, ``आप ऐसी गलती न करें। आपका डर बेबुनियाद है। आप उसे मौका देकर तो देखिये। यह लड़का सारे हिंदुस्तान को हिला देगा।´´नूरजहा¡ के कहने पर निजामी साहब कुछ पिघले और इस गाने के लिए भी रफी को ही मौका दिया। रफी ने नूरजहा¡ जैसी बेजोड़ गायिका के साथ यह अमर युगल गीत गाकर उस गीत की सुन्दरता एवं मèाुरता में चार चा¡द लगा दिये। दोनों में मानो मèाुर सुर छेड़ने की होड़ लगी थी। ऐसा लग रहा था नूरजहा¡ रफी का इम्तहान लेते हुए उनकी कला का एक नया आयाम निजामी साहब के सामने रख रही हों। इस गीत में भाव और आवाज की मुलायमियत का प्रद\र्शन रफी ने नूरजहा¡ की बराबरी में किया है। साथ ही करुणभाव के प्रद\र्शन के मामले में रफी की कला नूरजहा¡ के सामने खरी उतरी है। रफी के बारे में नूरजहा¡ का अन्दाजा सही निकला। सभी जानते हैं कि इस गीत ने दे\श भर में कैसा तहलका मचा दिया था।सफलता का f\शखर रफी की इन आरंभिक कामयाबियों के बावजूद नौ\शाद उनकी आवाज का इस्तेमाल फिल्मों में नायकों के लिये करने में कतराते रहे। यही कारण था कि उन्होंने फिल्म अनोखी अदा के सारे गीत मुके\श से गवाये। इसी तरह उन्होंने फिल्म मेला में भी रफी को केवल \शी\र्षक गीतµ`ये जिन्दगी के मेले´ गाने को दिया और दिलीप कुमार पर फिल्माये गये \शे\ष सभी गीत मुके\श से गवाये। लेकिन मेला को जिस गीत के लिए याद किया जाता है वह गीत `ये जिन्दगी के मेले´ ही है। यह गीत न केवल रफी के अमर गीतों में, बल्कि फिल्म संगीत इतिहास के सबसे लोकप्रिय गीतों में से एक है। इस गीत के भाव, \शब्द और तर्ज उच्चकोटि के थे। रफी के असरदार स्वर ने इस गीत को अमर बना दिया। नौ\शाद उन दिनों उस समय के प्रसिद्ध अभिनेता \श्याम कुमार पर फिल्माये गये गीतों के लिये मुके\श को अपनाते थे, लेकिन वह बीच-बीच में रफी को मौके देना नहीं भूलते थे।इस बीच रफी संगीतकारों की पहली जोड़ी हुस्नलाल-भगतराम के संपर्क में आये। इस जोड़ी ने अपनी आरंभिक फिल्मों प्यार की जीत, बड़ी बहन और मीना बाजार में रफी की आवाज का भरपूर इस्तेमाल किया। रफी की आवाज \श्याम कुमार पर फिट बैठी। इसके बाद तो नौ\शाद को भी दिल्लगी में नायक की भूमिका निभा रहे \श्याम कुमार के लिये रफी की आवाज का ही इस्तेमाल करना पड़ा। उन्होंने रफी की आवाज में इस फिल्म के दो गीतµ`तेरे कूचे में अरमानों की दुनिया ले के आया हू¡´ और `इस दुनिया में ऐ दिल वालों, दिल का लगाना खेल नहीं´ गवाये। ये दोनों गीत खास कर `तेरे कूचे में अरमानों की दुनिया´ दे\शभर में खूब लोकप्रिय हुए। रफी ने इन गीतों के साथ न केवल पा\श्र्व गायन में अपना एक स्थान बना लिया, बल्कि नौ\शाद के संगीत को भी एक नया आयाम दिया। रफी के गाये \शुरुआती गीतों की लोकप्रियता से प्रभावित होकर नौ\शाद ने चा¡दनी रात में रफी की आवाज का फिर इस्तेमाल किया। इस फिल्म में उस समय की उभरती हुई गायिका लता मंगे\शकर ने उस समय के प्रसिद्ध गायक जी- एम- दुराZनी के साथ तथा \श्याम कुमार ने अमीर बाई के साथ युगल गीत गाये। मगर रफी और \शम\शाद के गाये युगल गीत `कैसे बजाये दिल का सितार´ तथा एकल गीत `दिल हो उन्हें मुबारक जो दिल को ढूंढते हैं´ कहीं अfèाक लोकप्रिय हुए।इसके बाद बनी बैजू बावरा, जो फिल्म संगीत इतिहास की सिरमौर फिल्म मानी जाती है। इस फिल्म ने रफी को सफलता के f\शखर पर बिठा दिया। नौ\शाद ने इस फिल्म के कुल गीतों में से दो गीत प्रसिद्ध \शास्त्राीय गायक उस्ताद अमीर खा¡ साहब से और एक गीत डी- वी- पलुस्कर से गवाये। \शे\ष गीत या तो रफी के गाये हुए थे या रफी-लता के युगल स्वरों में थे। फिल्म निर्दे\शक विजय भê को रफी की योग्यता और लोकप्रियता पर उतना भरोसा नहीं था। इसलिये फिल्म के रिलीज होने पर उसके पोस्टरों में अमीर खा¡ साहब और पलुस्कर के नाम प्रचारित किये गये, लेकिन द\र्शक तो रफी के गाये `तू गंगा की मौज´ और `ओ दुनिया के रखवाले´ ही गुनगुना रहे थे। विभाजन के बादसन् 1947 में भारत का बंटवारा हुआ। रफी और उनके गुरु बड़े गुलाम अली खा¡ भारत में ही रहे। फिल्म उठो जागो में रफी ने `प्रेम की नैया डोल रही है´ गाया। फिल्म दो भाई में रफी का उदास किंतु मèाुर गाना है जिसके बोल हैं `दुनिया में मेरे आज अंèोरा ही अंèोरा´। इसका संगीत एस- डी- बर्मन ने दिया था। इसी व\र्ष सी- रामचन्द्र ने साजन में रफी से दो गाने गवाये, जिनके बोल थेµ`हमको तुम्हारा ही आसरा´ और `ओ बाबू, गली में तेरी, चा¡द चमका´। इन गानों का रफी ने पूरा फायदा उठाया और इन्हें इस ढंग से गाया कि वह लोकप्रियता के f\शखर पर जा बैठे। इसी फिल्म में रफी के कुछ èामाल गीत भी थे जो उन्होंने ललिता देऊलकर (फड़के) और गीता रॉय (दत्त) के साथ गाये थे। इन्हीं गीतों में रफी का गाया एकल गीत `ओ बाबू, गली में तेरी, चा¡द चमका´ भी था।सन् 1948 में रफी ने मेला के अलावा \शहीद, प्यार की जीत और \शाहनाज जैसी फिल्मों में भी गीत गाये। \शहीद में उनका गाया हुआ दे\शभक्ति गीत `वतन की राह में´ कौन भूल सकता है? रफी का मानना था कि इसी गीत के सहारे वह सही मायने में सफलता की सीढ़ी चढ़कर ऊपर आये। लेकिन अनेक लोगों का वि\श्वास है कि रफी के किस्मत का सितारा प्यार की जीत (संगीतकारµहुस्नलाल-भगतराम) के गीत `इक दिल के टुकड़े हजार हुए, कोई यहा¡ गिरा कोई वहा¡ गिरा´ से चमका। यह बात सही है कि इस गाने ने उस समय की युवा पीढ़ी पर काफी असर छोड़ा। उस समय यह गीत गली-गली में सुनाई देता था। इस गीत की लोकप्रियता का आलम यह था कि \शादियों में बैंड वाले यह गीत खूब बजाते थे।समकालीन गायकों के बीचसन् 1949 से उस समय के तीन प्रमुख पा\श्र्वगायकोंµतलत, मुके\श और रफी में होड़ सी \शुरू हो गई थी। मुके\श, सहगल की तरह गायक के साथ-साथ अभिनेता बनने के सपने देख रहे थे और उन्होंने इसके लिए विज्ञापन भी जारी किया था, मगर बात बन नहीं पाई। तलत भी हीरो बनने की कोf\श\श कर रहे थे। लेकिन उन्होंने पा\श्र्वगायन सेे नाता तोड़ने का विचार कभी नहीं किया। रफी ने \शुरू में मामूली प्रयत्न करने के बाद अभिनय से तौबा कर ली थी। व\र्ष 1949 से रफी को अfèाक गाने मिलने लगे, मगर वह जमाना भावपूर्ण संगीत का था, इसलिए तलत अपनी मरमरी आवाज के बल पर रफी की तुलना में काफी कम गीत गाकर भी अपना fस्ाक्का जमाये हुए थे। तलत ने एक साक्षात्कार में कहा थाµ``मेरे गाने भले ही कम रहे हों, लेकिन वे सभी सफल रहे हैं। \शायद ही कोई गाना विस्मृति की खाई में गया हो।´´ रफी का वर्चस्वसन् 1950 में आèाी रात, आ¡खें, बाबुल, बावरे नैन, बिरह की रात, बीवी, बरसात, बेकसूर, छोटी भाभी, दास्तान, गौना, मीना बाजार, निराला आदि फिल्में प्रदf\र्शत हुई। उनमें से कई फिल्मों में रफी को गाने के मौके मिले और इन फिल्मों में रफी के गाये हुए अनेक गाने पसन्द भी किये गये, लेकिन इसके बावजूद रफी अपने समकालीन गायकों मेें वचZस्व स्थापित नहीं कर पाये। उस समय के दो अन्य प्रमुख गायकोंµमुके\श और तलत के गाये हुए गीत मèाुर और भावपूर्ण होने के कारण लोगों को लुभा रहे थे, लेकिन इन दोनों गायकों की कुछ सीमायें थी। दोनोें रफी की तरह सभी तरह के गीत गाने में समर्थ नहीं थे और इसका फायदा रफी को मिला। रफी ने सन् 1951 में सभी किस्म के गीत गाकर èाूम मचाई। रफी की बहुआयामी संगीत प्रतिभा का जवाब कम से कम तलत के पास नहीं था।उस जमाने के सभी संगीत निर्दे\शक जान गए कि रफी किसी भी प्रकार के गीत गाने की काबलियत रखते हैं। उस समय के संगीतकार भी चाहते थे कि हर तरह के गीत गा सकने वाला लता की बराबरी का कोई पुरु\ष गायक भी हो और रफी के रूप में उन्हें ऐसा पुरु\ष गायक मिल गया। इन संगीतकारों को यह मालूम हो गया कि आवाज को तीसरे सप्तक तक उठाने का काम केवल रफी ही कर सकते हैं।गीतों का खजाना विभिन्न पत्रा-पत्रिाकाओं में मोहम्मद रफी के बारे छपे लेखों एवं रिपोटो± तथा अनेक इंटरनेट साइटों में इस बात का अक्सर जिक्र होता है कि मोहम्मद रफी ने 10 हजार से अfèाक गाने गाये थे। कुछ स्थानों पर यह संख्या 26 हजार तक भी बतायी जाती है। लेकिन रफी द्वारा गाये गए कम से कम चार हजार 925 फिल्मी एवं गैर फिल्मी गीत गाने के पक्के प्रमाण मिलते हैं।हिन्दी फिल्मी गानों के संकलन का जिन इक्के-दुक्के लोगों ने काम किया है उनमें हरमंदिर सिंह उर्फ हमराज का नाम प्रमुख है। उन्होंने हिन्दी फिल्मी गीतों का संकलन करके उन्हें गीत को\श के नाम से पा¡च खंडों में प्रकाf\शत किया। इन खंडों में 1931 से लेकर 1980 तक की सभी हिन्दी फिल्मों के सभी गीतों का संकलन है।कुछ लोगों ने गीत को\श के इन पा¡च खंडों एवं मोहम्मद रफी के गीतों के दो अन्य संकलनों के आèाार पर यह गणना की है कि रफी ने चार हजार 525 हिन्दी फिल्मी गाने गाये। मोहम्मद रफी के गीतों के जो संकलन उपलब्èा हैं उनमें एक अजीत प्रèाान और प्रीतम मेघाणी की है और दूसरा इकबाल गानम् और आसिफ बक्\शी का है। इन दोनों संकलनों के अनुसार रफी ने हिन्दी फिल्मों के अलावा गैर हिन्दी फिल्मों में भी करीब 400 गीत गाये। इन्हें मिलाकर मोहम्मद रफी द्वारा गाये कुल गानों की संख्या चार हजार 925 बैठती है। रफी ने 1944 से लेकर 31 जुलाई 1980 तक जो हिन्दी फिल्मी गाने गाये उनमें से लगभग सभी का संकलन हमराज के गीत को\श में किया गया है। लेकिन इसके बाद भी यह संभव है कि रफी द्वारा गाये गये कुछ गाने गीत को\श में दर्ज होने से रह गये हों। इस बात की संभावना अfèाक है कि इस गीत को\श में दर्ज होने से छूट गये रफी के गानों की संख्या पा¡च से पचास तक हो सकती है। फिल्म अरब का सितारा, बानू और हवाई खटोला नामक फिल्मों में रफी ने जो सात गाने गाये थे उनका जिक्र हमराज के गीत को\श में नहीं है। हाला¡कि इन सातों गानों का जिक्र रफी साहब के गीतों के दो संकलनों में है।दरअसल गानों की संख्या को लकर विवाद की स्थिति न केवल मोहम्मद रफी के साथ बल्कि लता मंगे\शकर, आ\शा भोंसले, कि\शोर कुमार तथा अन्य गायकों के साथ भी है। यह कहा जाता है कि लता मंगे\शकर ने 20 हजार गाने गाये हैं। लेकिन संगीत पर \शोèा करने वाले ई\श्वर नेरूरकर ने लता मंगे\शकर द्वारा गाये गये हिन्दी फिल्मी गीतों की संख्या पा¡च हजार 80 बतायी है। अगर इन गीतों के साथ गैर हिन्दी गीतों को भी जोड़ लिया जाये तो यह संख्या छह से साढ़े छह हजार बैठती है। केवल आ\शा भोंसले के मामले में इस बात के प्रमाण है कि उन्होंने आठ हजार से अfèाक हिन्दी गाने गाये हैं। अगर उनके द्वारा गाये गये अन्य गैर हिन्दी गीतों को भी \शामिल कर लिया जाये तो यह संख्या 10 हजार के आसपास पहु¡च सकती है या उसे पार कर सकती है। जहा¡ तक दो अन्य मरहूम गायकोंµकि\शोर कुमार एवं मुके\श द्वारा गाये गये गानों का सवाल है तो कि\शोर कुमार द्वारा दो हजार 900 गीत तथा मुके\श द्वारा एक हजार गीत गाने के प्रमाण मिलते हैं।रा\ष्ट्रीयता से ओतप्रोतआज वैसे समय में जब दे\श में èार्म एवं सम्प्रदाय के नाम पर दंगे एवं झगडे़ हो रहे है, मोहम्मद रफी को याद करना और भी जरूरी हो जाता है जो सर्वèार्म समभाव के एक मजबूत प्रतीक थे और जिन्होंने `मन तड़पत हरि द\र्शन को आज´ (बैजू बावरा) जैसे भजन एवं भक्ति संगीत इस तन्यमयता से गाया कि आज भी सुनने वाले भाव विभोर हो जाते हैं।मोहम्मद रफी ने रा\ष्ट्रभक्ति एवं हिंदुस्तान से प्रेम का उत्कृ\ष्ट उदाहरण पे\श किया। नूरजहा¡, फिरोज निजामी और निसार वाज्मी जैसे उनके समकालीन अनेक \शfख्सयत पाकिस्तान चले गये, लेकिन उन्होंने भारत छोड़ने की नहीं सोची। इतना ही नहीं, रफी ने सभी गायकों की तुलना में सबसे अfèाक संख्या में दे\शभक्ति गीत गाये हैं। `वतन पे जो फिदा होगा´, `कर चले हम फिदा´ और `अपनी आजादी को हम हरगिज मिटा सकते नहीं´ जैसे रफी के गाये दे\शभक्ति गीतों के बगैर आज भी \शायद ही कोई रा\ष्ट्रीय समारोह पूरा हो पाये। रफी ने जनवरी 1948 में महात्मा गा¡èाी की हत्या के एक माह बाद गा¡èाी को श्रद्धा¡जलि देने के लिये हुस्नलाल-भगतराम के संगीत निर्दे\शन में राजेद्र कृ\ष्ण लिखितµ`सुनो-सुनो ऐ दुनिया वालों, बापू की अमर कहानी´ नामक गीत गाया जिसे सुनकर पंडित जवाहर लाल नेहरू की आ¡खों में आ¡सू आ गये थे। भारत-पाक युद्ध के समय रफी भारतीय सैनिकों और आम जनता को स्फूर्ति देने वाले गीत गाते रहे। यह सब \शायद पाकिस्तान की सरकार को गवारा नहीं था और संभवत: यही कारण था कि दुनिया के लगभग सभी दे\शों में अपने कार्यक्रम देने वाले मोहम्मद रफी पाकिस्तान में कोई कार्यक्रम नहीं कर पाये। उतार-चढ़ावभारतीय फिल्म संगीत के स्वर्ण काल के दौरान मोहम्मद रफी की लोकप्रियता का सितारा कभी मंद नहीं हुआ जबकि उनकी मुके\श, मन्ना डे और तलत महमूद जैसे बेहतरीन गायकों से कड़ी चुनौती थी। सन् 1969 के बाद कि\शोर कुमार ने उन्हें जरूर पीछे छोड़ा था। फिल्म आराèाना के रिलीज होने के बाद कि\शोर कुमार उस समय के ज्यादातर संगीतकारों के पंसदीदा गायक बन गये और रफी पृ\ष्ठभूमि में चले गये। लेकिन इसके बाद भी रफी ने अपना स्थान पाने का प्रयत्न जारी रखा और काफी हद तक सफल भी हुए। रफी एकमात्रा ऐसे गायक हैं जो पृ\ष्ठभूमि में जाने के बाद एक बार फिर उभर कर आये। हम किसी से कम नहीं और लैला मजन¡ू के रिलीज होने के बाद रफी ने एक बार फिर अपनी क्षमता का लोहा मनवाया। हाला¡कि रफी 31 जुलाई 1980 को अपने अवसान के समय तक गाते रहे, लेकिन पहले जैसे श्रे\ष्ठ गीत नहीं दे पाये। इसकी वजह यह भी हो सकती है कि नये संगीतकार रफी की प्रतिभा का वैसा इस्तेमाल नहीं कर सके जैसा नौ\शाद, मदन मोहन, एस- डी- बर्मन, \शंकर-जयकि\शन और रो\शन जैसे संगीतकारों ने किया था। आज के कर्णफोडू एवं \शोरभरे संगीत के दौर में भी हर नया और स्थापित गायक अपने को रफी की तरह का गायक कहलाने पर सम्मानित महसूस करता है, लेकिन सच्चाई तो यह है कि आज तक कोई ऐसा फनकार पैदा नहीं हुआ जो रफी की तरह मèाुर सुर लहरी के जादू से बड़े पैमाने पर लोगों को मदहो\श कर सके। यह काफी आ\श्चर्यजनक है कि एक अरब की जनसंख्या वाले दे\श में आज तक ऐसा कोई गायक नहीं खोजा जा सका जो उसी श्रे\ष्ठता के साथ गाने की क्षमता रखता हो, जिस श्रे\ष्ठता के साथ मोहम्मद रफी गाया करते थे। रफी की मृत्यु पर लता की प्रतिक्रिया थी कि फिल्म संगीत का एक युग सहगल के साथ समाप्त हुआ और रफी के साथ दूसरा युग भी समाप्त हो गया।