Tuesday, March 25, 2008

फ़िल्मी गीतों से मरीज़ों का इलाज

फ़िल्मी गीतों से मरीज़ों का इलाज

एस नियाज़ीभोपाल


मरीज़ों ने बताया कि उन्हें इससे लाभ मिल रहा है.
भोपाल के सरकारी हमीदिया अस्पताल में भर्ती मरीज़ आजकल एक नये अनुभव से गुज़र रहे है.
इस अस्पताल के अस्थि रोग शल्य चिकित्सा वार्ड में पहुँचे मरीज़ों का इलाज संगीत थैरेपी के ज़रिए किया जा रहा है.
इस अस्पताल में मरीज़ों को इलाज के दौरान लता, आशा भोंसले, मोहम्मद रफ़ी और दूसरे गायकों के गाए हुए गीत सुनने को मिल रहे है.
यह प्रयोग शुरु किया है अस्पताल अधीक्षक एससी तिवारी ने और वो मानते हैं कि शास्त्रीय संगीत पर इस तरह का प्रयोग पहले ही कुछ जगहों पर शुरू हो चुका है मगर फ़िल्मी गीतों के साथ ऐसा प्रयोग पहली बार किया जा रहा है.
एससी तिवारी बताते हैं कि विदेशों में भी काफी जगहों पर ऐसा इलाज किया जाता है.
अस्पताल ने अलग-अलग बीमारियों के लिए अलग-अलग गाने चुन रखे है. हर गाना अपना अलग असर मरीज़ के दिमाग पर छोड़ता है.
मरीज़ों को ये गाने सुबह और शाम के वक्त सुनने को मिलते है.
मरीज़ भी ख़ुश
संगीत से इलाज को मरीज़ भी अच्छा मान रहे है.
लंबे अरसे से इस अस्पताल में भर्ती राम स्वरुप का मानना है, "संगीत एक तरह से ऊर्जा का संचार करता है. मरीज़ इसके चलते अपना दर्द भूल जाता है और अच्छा अनुभव करता है."
संगीत एक तरह से ऊर्जा का संचार करता है. मरीज़ इसके चलते अपना दर्द भूल जाता है और अच्छा अनुभव करता है

राम स्वरूप, एक मरीज़
उनका कहना है कि संगीत काफ़ी हद तक मरीज़ को उसके बुरे अनुभव भुलाने में मदद करता है.
वही एक अन्य मरीज़ नन्ही बाई, जो स्वंय संगीत में रुचि रखती हैं का कहना है कि संगीत मन को शांति देता है.
वो कहती हैं, "मरीज़ के लिए यह बहुत ज़रुरी होता है. अगर मरीज़ का मन अच्छा रहेगा तो उसे ठीक होने में वक्त नही लगता".
एक मरीज़ के साथ देखरेख के लिए मौजूद रहने वाले सुमेर कुमार का कहना है कि निश्चित तौर पर संगीत ने उनके मरीज़ को अच्छा करने में मदद पहुँचाई है. उन्हें ठीक होने में जो वक्त लगता उसे संगीत ने ही कम कर दिया.
अस्पताल में बिस्तर में पड़े मरीज़ों के लिए यह वरदान साबित हो रहा है.
गीतों का चयन
इस संगीत थैरेपी को शुरु करने से पहले कई संगीतकारों से बातचीत की गई. उनके साथ मिलकर उन गानों को चुना गया जिनके ज़रिए इलाज किया जाना था.
हमने जानेमाने संगीतकारों से बातचीत करके गीतों का चुनाव किया. इसके बाद उसमें अलग-अलग रागों को मिलाकर मरीज़ों पर इस्तेमाल किया गया

एससी तिवारी, अस्पताल अधीक्षक
अस्पताल अधीक्षक एससी तिवारी कहते है, "हमने जानेमाने संगीतकारों से बातचीत करके गीतों का चुनाव किया. इसके बाद उसमें अलग-अलग रागों को मिलाकर मरीज़ों पर इस्तेमाल किया गया."
मरीज़ों को आख़िर इस संगीत थैरेपी से कितना फ़ायदा हुआ है इसको जानने के भी प्रयास किए जा रहे है.
तिवारी का कहना है कि अब तक के मरीज़ों के अनुभव बताते है कि थैरेपी उऩ्हें फ़ायदा पहुँचा रही है.
तो भागदौड़ भारी इस ज़िंदगी में अगर आप किसी भी तरह का दर्द महसूस करते है, तो पहुँच जाएँ भोपाल के हमीदिया अस्पताल में और तैयार हो जाएँ गुज़रे ज़माने के गाने "मोहे भूल गए साँवारिया" के ज़रिए इलाज कराने के लिए.

A memory of Mohammad Rafi by Vedika Tripathi


मोहम्मद रफ़ी की याद ...
वेदिका त्रिपाठीमुंबई से
मोहम्मद रफ़ी की 31 जुलाई को पुण्यतिथि है. इसे रफ़ी की गायकी का चमत्कार ही माना जाए कि उन्हें अब भी उसी शिद्दत से याद किया और सुना जाता है जैसे उनका बिछड़ना अभी कल की ही बात हो.
कई लोगों का मानना है कि उनके जैसा गायक कलाकार न ही कोई पैदा हुआ है और न होगा.
सुख के सब साथी..., जो वादा किया वो..., लिखे जो ख़त तुझे..., मेरे महबूब कहीं... जैसे अनेक गाने हैं जिन्हें मोहम्मद रफ़ी ने अपनी आवाज़ से सजाया और लोग उनकी आवाज़ के दीवाने हो गए.
फ़िल्म इंडस्ट्री की बात करें तो शायद ही कोई ऐसा होगा या रहा होगा जो रफ़ी साहब के साथ काम करने के लिए उत्साहित न हुआ हो. कई गायकों को तो वो सामने लाए थे.
रफ़ी साहब को अपना आदर्श मानने वाले सोनू निगम ने एक बातचीत के दौरान कहा था कि “रफ़ी साहब मेरे लिए एक संदेश थे. वो भले ही हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनकी याद सदा हमारे दिल में बसी रहेगी.”
उनकी पुण्यतिथि के मौक़े पर हमने बात की उनके कुछ क़रीबी लोगों से जो आज भी उनकी याद आने पर अपनी आंखों को नम होने से अपने आपको नहीं रोक पाते हैं.
रवींन्द्र जैन
गीतकार– संगीतकार रवीन्द्र जैन से जब हमने मोहम्मद रफ़ी के बारे में पूछा तो दो मिनट तक उन्होंने कुछ सोचने की कोशिश की और झट से ये लाइनें हमें सुना दी.
मैं तो उन्हें कभी भूल ही नहीं सकता हूं. मैं खुदा से दुआ करूंगा कि फिर कोई रफ़ी पैदा करे ताकि लोग ऐसे महान फनकार की कलाकारी फिर देख सकें

रवीन्द्र जैन
31 जुलाई दे गई आंखों को हमेशा के लिए रूलाईकहना मुश्किल है कि इंसान अच्छे थे या फनकारआज ही के दिन ली अंतिम विदाई हमसेनहीं देखा इतना हुजूम किसी के ज़नाज़े के साथखामोशी से चल रहे थे सब इबादत के साथ.
रवीन्द्र जैन का कहना था,“ मैं तो उन्हें कभी भूल ही नहीं सकता हूं. मैं खुदा से दुआ करूंगा कि फिर कोई रफ़ी पैदा करे ताकि लोग ऐसे महान फनकार की कलाकारी फिर देख सकें.”
उनका कहना था,“ वो अच्छे गायक होने के साथ ही बहुत ही अच्छे इंसान थे.मेरी पहली फ़िल्म ‘कांच और हीरा’ के गाने को रफ़ी साहब ने अपनी आवाज़ से संवारा था.”
मोहम्मद अज़ीज
बचपन से ही मोहम्मद रफ़ी के गाने गाकर बडे़ हुए गायक मोहम्मद अज़ीज का कहना था, “आमतौर पर ज़्यादा काम करने से आवाज़ की सफ़ाई, मासूमियत खत्म हो जाती है. लेकिन रफ़ी साहब के 40-45 साल तक काम करने पर भी वही मासूमियत सुनने को मिलती थी.”
मैं बचपन से उनका बहुत कद्रदान रहा हूं और इससे बडी बात क्या हो सकती है कि अपने गाए 60 गाने मुझे भले ही याद न हों लेकिन रफ़ी साहब के छह हज़ार गाने मुझे याद हैं

मोहम्मद अज़ीज
अज़ीज आगे कहते हैं, “मैं बचपन से उनका बहुत कद्रदान रहा हूं और इससे बड़ी बात क्या हो सकती है कि अपने गाए 60 गाने मुझे भले ही याद न हों लेकिन रफ़ी साहब के छह हज़ार गाने मुझे याद हैं.”
वो कहते हैं,“मुझे यह कहने में बिल्कुल भी संकोच नहीं है कि मैं आज जो कुछ भी हूँ, वह रफ़ी साहब की ही वजह से हूँ.”
महेंद्र कपूर
गायक महेन्द्र कपूर कहते है, “वो मेरे उस्ताद थे, मैं उन्हें भाईजान कहा करता था. उनसे अच्छा गायक कोई नहीं था. जितनी मेहनत उन्होंने की है इंडस्ट्री में शायद ही किसी ने की होगी.”
उन्होंने अपनी लोहे की आवाज़ को नरम कर दिया था. कभी उन्हें अपनी आवाज़ पर घमंड नहीं हुआ बल्कि वो हमेशा इसे मालिक की मेहरबानी कहा करते थे

महेंद्र कपूर
वो कहते हैं,“ उन्होंने अपनी लोहे की आवाज़ को नरम कर दिया था. कभी उन्हें अपनी आवाज़ पर घमंड नहीं हुआ बल्कि वो हमेशा इसे मालिक की मेहरबानी कहा करते थे. इतने बड़े कलाकार होकर भी हमेशा झुके रहते थे.”
महेंद्र कपूर का मानना है, “जिस तरह से एक बेटा अपने पिता को याद करता है उसी तरह वो भी मेरे मन में समाए हैं. मैं आज जो कुछ भी हूं, उनकी वजह से हूँ.मैं हमेशा उनका शुक्रगुजार रहूँगा.”

The Passion of a fan of Mohammad Rafi










मोहम्मद रफ़ी की चाहत का जुनून
(मोहम्मद रफ़ी को दीवानगी की हद चाहनेवाले एक शख्स की दास्ताँ).



उमेश मखीजा के घर में घड़ी के काँटे रफ़ी साहब की मौत के वक्त पर रुके हुए हैं
मोहम्मद रफ़ी एक ऐसा नाम है जिसे शायद ही कोई न जानता हो. कई दशकों तक उन्होंने बेहतरीन फ़िल्मी और गैर फ़िल्मी गाने गाए. वैसे तो उनके चाहने वालों की कोई गिनती ही नहीं पर कुछ लोग उन्हें भगवान का दर्जा देते हैं और पूजते हैं.
ऐसे ही एक शख्स हैं अहमदाबाद के उमेश मखीजा. कपड़े का व्यापार करने वाले मखीजा रफ़ी को दीवानगी की हद तक चाहते हैं. उनके दीवानेपन की हद यह है कि अपने मकान का एक कमरा उन्होंने रफ़ी के नाम कर रखा है.



इस कमरे का दर्जा मंदिर का है और यहाँ पर हर चीज़ पर रफ़ी का नाम है. इस कमरे की घड़ी उस वक़्त पर यानी 10 बज कर 29 मिनट पर रुकी हुई है जब 31 जुलाई, 1980 में रफ़ी साहब ने अंतिम सांस ली थी.
कमरे में हर जगह रफ़ी की तस्वीरें हैं. चाहे वो स्पीकर हो, लैंप हो या फिर कुछ और.
कमरे के बेड पर बिछाई चादर पर रफ़ी के गाए गए नग़मों के बोल प्रिंट किए हुए हैं और दो तकियों पर रफ़ी के जन्म और मौत की तारीख़ लिखी हुई है.
दीवानगी
एक कोने में रफ़ी की मज़ार की मिट्टी भी पड़ी हुई है.

मोहम्मद रफ़ी के परिवार की तस्वीर के साथ उमेश मखीजा
उमेश कहते हैं, “सन 1978 में रफ़ी साहब के एक गीत को सुनकर मैने अंदर तक कुछ महसूस किया और उसके बाद पता नहीं कब हम एक दूसरे की ओर खिंचते चले गए.''
उनका कहना, ''मैं चाहता हूँ कि मेरा यह कमरा ऐसा हो कि जिस तरह लोग अहमदाबाद में महात्मा गाँधी के साबरमती आश्रम को देखने जाते हैं वैसे ही वो रफ़ी साहब के दर्शन के लिए आएं.”
उमेश के पास मोहम्मद रफ़ी द्वारा गाए चार हज़ार से ज़्यादा गीतों का भंडार है. इनमें कुछ ऐसे गाने है जिनका मिलना बहुत मुश्किल है.
ये गाने हिंदी, पंजाबी, सिंधी, गुजराती और अन्य भाषाओं में हैं. यहाँ तक की दो गीत तो अंग्रेजी में भी गाए गए हैं.
'रफ़ीवार'
उमेश रविवार को रफ़ीवार की तरह मनाते हैं. इस रोज़ दोपहर में दो से पाँच बजे तक कोई भी उनके घर जा कर रफ़ी साहब पर बात कर सकता है और उनके गीत सुन सकता है.

रफ़ी के नगमे घर की चादरों तक पर लिखे हैं
उमेश मखीजा कहते हैं, “मैं जीते जी रफ़ी साहब को तो अपने घर नहीं ला सका पर उनको हर वक़्त अपने करीब चाहता हूँ.”
उमेश के इस जुनून में उनके परिवार का भी पूरा सहयोग है.
उनका कहना है, “परिवार के सहयोग के बिना तो मैं कुछ भी नहीं कर सकता. मेरी पत्नी पूनम रफ़ी साहब के कमरे की सफ़ाई सबसे पहले करती हैं और मेरे बच्चे भी उस कमरे को एक मंदिर की तरह रखने में मेरा सहयोग करते हैं.”
उनका दावा है कि भारत में प्लेबैक सिंगर तो बहुत आए पर रफ़ी साहब प्लेबैक एक्टर थे यानी वो हर एक्टर के लिए अलग अंदाज़ में गाते थे.
रफ़ी के इस दीवाने ने रफ़ी पर जारी की गई डाक टिकट से लेकर उनपर छपे लेख तक इकट्ठे कर रखे हैं.
आज उमेश के पास रफ़ी के जीवन और गीतों पर बेशुमार जानकारियाँ हैं.

tum mujhe yun bhoola na payoge - which is the most favorit song of Mohammad Rafi


तुम मुझे यूँ भुला न पाओगे...

जब कोई यह सवाल करता है कि आपको मोहम्मद रफ़ी का कौन सा गाना सबसे ज़्यादा पसंद है तो एक धर्मसंकट सा खड़ा हो जाता है.रफ़ी साहब के हज़ारों गानों में से किसी एक गाने को सबसे ज़्यादा अच्छा कहना क्या वाक़ई मुमकिन है. रफ़ी साहब ने क़रीब 26 हज़ार गाने गाए जिनमें हर रंग, मिज़ाज़, मूड को उन्होंने इस बख़ूबी से अपनी आवाज़ में उतारा कि कोई भी संगीत प्रेमी बरबस उनकी आवाज़ के जादू में घिरा रह जाता है.

रफ़ी साहब की जादुई आवाज़ भले ही 31 जुलाई 1980 को सदा के लिए ख़ामोश हो गई लेकिन आज भी यह आवाज़ संगीत प्रेमियों के दिलों में इस तरह से बसी है कि सदियों तक उसकी गूंज रहेगी.
मोहम्मद रफ़ी ने आवाज़ के ज़रिए राज किया हैआज अगर रफ़ी साहब को याद किया जाए या उन्हें श्रद्धांजलि दी जाए तो शायद ख़ुद उन्हीं के गाए एक गीत से बेहतर और तरीक़ा नहीं हो सकता."तुम मुझे यूँ भुला ना पाओगे.जब कभी भी सुनोगे गीत मेरे, संग संग तुम भी गुनगुनाओगे."या फिर अगर यह गीत सुनें - "दिल का सूना साज़ तराना ढूंढेगा,तीर निगाहे नाज़ निशाना ढूंढेगा,मुझको मेरे बाद ज़माना ढूंढेगा."सचमुच हम लाख उन्हें ढूंढें अब वो लौटकर नहीं आ सकते लेकिन उनकी सुरीली आवाज़ सदियों तक दुनिया में अपनी मौजूदगी का अहसास कराती रहेगी.मीठे इन्सान भीएक गायक के रूप में मोहम्मद रफ़ी बहुत लोकप्रिय रहे लेकिन उनसे बात करने पर उनके व्यक्तित्व की मिठास का भी अंदाज़ा होता था.वह इतने ऊँचे शिखर पर विराजमान होने के बावजूद भी बहुत ही विनम्र थे और बहुत ही मीठी आवाज़ में बात करते थे.
लेकिन ग़ौर से देखें तो बातचीत में उनकी मिठास और गीतों में उनकी आवाज़ की बुलंदी का फ़र्क़ आसानी से नज़र आ जाता है.फ़िल्म बैजू बावरा का गीत "ओ दुनिया के रखवाले, सुन दर्द भरे मेरे नाले" रफ़ी की आवाज़ की ऊँचाई का अहसास आसानी से करा देता जिसे सुनकर यह सोचने के लिए मजबूर होना पड़ता है कि यह बुलंदी ख़ुदा की नेमत ही हो सकती है जो सबको नहीं मिलती.जिस तरह से नूरजहाँ को मलिका-ए-तरन्नुम कहा गया और दिलीप कुमार को अभिनय सम्राट का दर्जा दिया गया उसी तरह मोहम्मद रफ़ी को शहंशाह-ए-तरन्नुम कहा तो गया लेकिन यह शायद काफ़ी नहीं था.लगता तो यही है कि आवाज़ के इस जादूगर को कोई और नाम ना देकर अगर सिर्फ़ रफ़ी ही कहा जाए तो भी उनका जादू कम नहीं होता.तिकड़ी का राजएक ज़माना था जब संगीतकार नौशाद, गीतकार शकील बदायूँनी और मोहम्मद रफ़ी की तिकड़ी ने फ़िल्मी दुनिया पर राज किया था.यह तिकड़ी जिस फ़िल्म को मिल जाती थी उसकी कामयाबी के बारे में कोई शक नहीं रह जाता था.

रफ़ी साहब एक ख़ुशगप्पी थे और हँसी मज़ाक करना उनकी फ़ितरत थी.
दिलीप कुमार इसी तिकड़ी का फ़िल्म बैजू बावरा का वह भजन - 'मन तड़पत हरि दर्शन को' आज भी एक मिसाल बना हुआ है. इतना ही नहीं कहा तो यह भी जाता है कि मोहम्मद रफ़ी का आवाज़ की ही बदौलत शम्मी कपूर और जॉय मुखर्जी की पहचान बनी थी.शम्मी कपूर की बलखाती-लहराती अदाओं के साथ झटकेदार आवाज़ मिलाने का फ़न भी मोहम्मद रफ़ी के पास ही था.रफ़ी की आवाज़ में वह गहराई भी थी कि अगर वह 'चौदहवीं का चाँद' गीत गाते थे तो ऐसा लगता था कि आवाज़ बिल्कुल गुरुदत्त के गले से ही निकल रही हो.बेटी विदा करते समय बाप की भावनाओं को बयान करने के लिए आज भी 'बाबुल की दुआएँ लेती जा, जा तुझको सुखी संसार मिले' की दर्दभरी आवाज़ एक मिसाल बन चुकी है.रफ़ी साहब ने इस गाने के बारे में कहा था कि इसे गाते वक़्त उन्हें अपनी बेटी की विदाई याद आ गई थी इसलिए इस गाने में उनकी आवाज़ में जो दर्द उभरा वह बिल्कुल असली था.ख़ुशगप्पीदिलीप कुमार रफ़ी साहब के साथ बिताए वक़्त को याद करते हुए कहते हैं कि वह एक ख़ुशगप्पी थे और हँसी मज़ाक करना उनकी फ़ितरत थी. रफ़ी साहब बहुत ही भोले थे और उनके चेहरे के साथ साथ उनके अंदर भी बच्चों जैसी मासूमियत थी.रफ़ी साहब ने वैसे तो बच्चों के लिए भी बहुत से गाने गाए लेकिन उनमें से एक तो कुछ ख़ास ही था.रेम्माम्मा रेम्माम्मा रे, रेम्माम्मा रेम्माम्मा रे.सुन लो सुनाता हूँ तुमको कहानी, रूठो ना हमसे ओ गुड़ियों की रानी.इस गाने में रफ़ी साहब की आवाज़ की चंचलता, नटखटपन और बालसुलभ भावनाएं सुनते ही बनती है.रफ़ी साहब के बारे में जितना लिखा जाए, उनकी कला का बखान नहीं हो सकता. इसलिए कई बार यह कहावत ही सही लगती है कि कभी कभी शब्द भावनाओं का साथ छोड़ देते हैं.कभी-कभी सिर्फ़ यही लगता है कि ख़ामोश रहते हुए जो महसूस किया जा सकता है उसे लफ़्ज़ों के दायरे में नहीं बाँधा जा सकता.बिल्कुल यही मोहम्मद रफ़ी साहब को याद करने के मामले में होता है. उन्हें याद करने और श्रद्धांजलि देने के लिए तो यही काफ़ी है कि रफ़ी तो बस रफ़ी ही हैं. आज रफ़ी साहब भले ही हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनकी जादुई आवाज़ हमारे अहसास में रची बसी है और यह ख़याल ही रफ़ी साहब के चाहने वालों की तरफ़ से एक सच्ची श्रद्धांजलि हो सकती है.

Saturday, March 15, 2008

Stamp to honour Madhubala.


Thiruvananthapuram, March 14: A commemorative stamp featuring actress Madhubala, hearthrob of yesteryears’ cinefans, will be released by the Department of Posts on March 18, 2008.
The stamp with the information sheet and the first day covers would be available for sale at philatelic bureaux and head post offices, an official press release said here today.