tum mujhe yun bhoola na payoge - which is the most favorit song of Mohammad Rafi
तुम मुझे यूँ भुला न पाओगे...
जब कोई यह सवाल करता है कि आपको मोहम्मद रफ़ी का कौन सा गाना सबसे ज़्यादा पसंद है तो एक धर्मसंकट सा खड़ा हो जाता है.रफ़ी साहब के हज़ारों गानों में से किसी एक गाने को सबसे ज़्यादा अच्छा कहना क्या वाक़ई मुमकिन है. रफ़ी साहब ने क़रीब 26 हज़ार गाने गाए जिनमें हर रंग, मिज़ाज़, मूड को उन्होंने इस बख़ूबी से अपनी आवाज़ में उतारा कि कोई भी संगीत प्रेमी बरबस उनकी आवाज़ के जादू में घिरा रह जाता है.
रफ़ी साहब की जादुई आवाज़ भले ही 31 जुलाई 1980 को सदा के लिए ख़ामोश हो गई लेकिन आज भी यह आवाज़ संगीत प्रेमियों के दिलों में इस तरह से बसी है कि सदियों तक उसकी गूंज रहेगी.
मोहम्मद रफ़ी ने आवाज़ के ज़रिए राज किया हैआज अगर रफ़ी साहब को याद किया जाए या उन्हें श्रद्धांजलि दी जाए तो शायद ख़ुद उन्हीं के गाए एक गीत से बेहतर और तरीक़ा नहीं हो सकता."तुम मुझे यूँ भुला ना पाओगे.जब कभी भी सुनोगे गीत मेरे, संग संग तुम भी गुनगुनाओगे."या फिर अगर यह गीत सुनें - "दिल का सूना साज़ तराना ढूंढेगा,तीर निगाहे नाज़ निशाना ढूंढेगा,मुझको मेरे बाद ज़माना ढूंढेगा."सचमुच हम लाख उन्हें ढूंढें अब वो लौटकर नहीं आ सकते लेकिन उनकी सुरीली आवाज़ सदियों तक दुनिया में अपनी मौजूदगी का अहसास कराती रहेगी.मीठे इन्सान भीएक गायक के रूप में मोहम्मद रफ़ी बहुत लोकप्रिय रहे लेकिन उनसे बात करने पर उनके व्यक्तित्व की मिठास का भी अंदाज़ा होता था.वह इतने ऊँचे शिखर पर विराजमान होने के बावजूद भी बहुत ही विनम्र थे और बहुत ही मीठी आवाज़ में बात करते थे.
लेकिन ग़ौर से देखें तो बातचीत में उनकी मिठास और गीतों में उनकी आवाज़ की बुलंदी का फ़र्क़ आसानी से नज़र आ जाता है.फ़िल्म बैजू बावरा का गीत "ओ दुनिया के रखवाले, सुन दर्द भरे मेरे नाले" रफ़ी की आवाज़ की ऊँचाई का अहसास आसानी से करा देता जिसे सुनकर यह सोचने के लिए मजबूर होना पड़ता है कि यह बुलंदी ख़ुदा की नेमत ही हो सकती है जो सबको नहीं मिलती.जिस तरह से नूरजहाँ को मलिका-ए-तरन्नुम कहा गया और दिलीप कुमार को अभिनय सम्राट का दर्जा दिया गया उसी तरह मोहम्मद रफ़ी को शहंशाह-ए-तरन्नुम कहा तो गया लेकिन यह शायद काफ़ी नहीं था.लगता तो यही है कि आवाज़ के इस जादूगर को कोई और नाम ना देकर अगर सिर्फ़ रफ़ी ही कहा जाए तो भी उनका जादू कम नहीं होता.तिकड़ी का राजएक ज़माना था जब संगीतकार नौशाद, गीतकार शकील बदायूँनी और मोहम्मद रफ़ी की तिकड़ी ने फ़िल्मी दुनिया पर राज किया था.यह तिकड़ी जिस फ़िल्म को मिल जाती थी उसकी कामयाबी के बारे में कोई शक नहीं रह जाता था.
रफ़ी साहब एक ख़ुशगप्पी थे और हँसी मज़ाक करना उनकी फ़ितरत थी.
दिलीप कुमार इसी तिकड़ी का फ़िल्म बैजू बावरा का वह भजन - 'मन तड़पत हरि दर्शन को' आज भी एक मिसाल बना हुआ है. इतना ही नहीं कहा तो यह भी जाता है कि मोहम्मद रफ़ी का आवाज़ की ही बदौलत शम्मी कपूर और जॉय मुखर्जी की पहचान बनी थी.शम्मी कपूर की बलखाती-लहराती अदाओं के साथ झटकेदार आवाज़ मिलाने का फ़न भी मोहम्मद रफ़ी के पास ही था.रफ़ी की आवाज़ में वह गहराई भी थी कि अगर वह 'चौदहवीं का चाँद' गीत गाते थे तो ऐसा लगता था कि आवाज़ बिल्कुल गुरुदत्त के गले से ही निकल रही हो.बेटी विदा करते समय बाप की भावनाओं को बयान करने के लिए आज भी 'बाबुल की दुआएँ लेती जा, जा तुझको सुखी संसार मिले' की दर्दभरी आवाज़ एक मिसाल बन चुकी है.रफ़ी साहब ने इस गाने के बारे में कहा था कि इसे गाते वक़्त उन्हें अपनी बेटी की विदाई याद आ गई थी इसलिए इस गाने में उनकी आवाज़ में जो दर्द उभरा वह बिल्कुल असली था.ख़ुशगप्पीदिलीप कुमार रफ़ी साहब के साथ बिताए वक़्त को याद करते हुए कहते हैं कि वह एक ख़ुशगप्पी थे और हँसी मज़ाक करना उनकी फ़ितरत थी. रफ़ी साहब बहुत ही भोले थे और उनके चेहरे के साथ साथ उनके अंदर भी बच्चों जैसी मासूमियत थी.रफ़ी साहब ने वैसे तो बच्चों के लिए भी बहुत से गाने गाए लेकिन उनमें से एक तो कुछ ख़ास ही था.रेम्माम्मा रेम्माम्मा रे, रेम्माम्मा रेम्माम्मा रे.सुन लो सुनाता हूँ तुमको कहानी, रूठो ना हमसे ओ गुड़ियों की रानी.इस गाने में रफ़ी साहब की आवाज़ की चंचलता, नटखटपन और बालसुलभ भावनाएं सुनते ही बनती है.रफ़ी साहब के बारे में जितना लिखा जाए, उनकी कला का बखान नहीं हो सकता. इसलिए कई बार यह कहावत ही सही लगती है कि कभी कभी शब्द भावनाओं का साथ छोड़ देते हैं.कभी-कभी सिर्फ़ यही लगता है कि ख़ामोश रहते हुए जो महसूस किया जा सकता है उसे लफ़्ज़ों के दायरे में नहीं बाँधा जा सकता.बिल्कुल यही मोहम्मद रफ़ी साहब को याद करने के मामले में होता है. उन्हें याद करने और श्रद्धांजलि देने के लिए तो यही काफ़ी है कि रफ़ी तो बस रफ़ी ही हैं. आज रफ़ी साहब भले ही हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनकी जादुई आवाज़ हमारे अहसास में रची बसी है और यह ख़याल ही रफ़ी साहब के चाहने वालों की तरफ़ से एक सच्ची श्रद्धांजलि हो सकती है.
मोहम्मद रफ़ी ने आवाज़ के ज़रिए राज किया हैआज अगर रफ़ी साहब को याद किया जाए या उन्हें श्रद्धांजलि दी जाए तो शायद ख़ुद उन्हीं के गाए एक गीत से बेहतर और तरीक़ा नहीं हो सकता."तुम मुझे यूँ भुला ना पाओगे.जब कभी भी सुनोगे गीत मेरे, संग संग तुम भी गुनगुनाओगे."या फिर अगर यह गीत सुनें - "दिल का सूना साज़ तराना ढूंढेगा,तीर निगाहे नाज़ निशाना ढूंढेगा,मुझको मेरे बाद ज़माना ढूंढेगा."सचमुच हम लाख उन्हें ढूंढें अब वो लौटकर नहीं आ सकते लेकिन उनकी सुरीली आवाज़ सदियों तक दुनिया में अपनी मौजूदगी का अहसास कराती रहेगी.मीठे इन्सान भीएक गायक के रूप में मोहम्मद रफ़ी बहुत लोकप्रिय रहे लेकिन उनसे बात करने पर उनके व्यक्तित्व की मिठास का भी अंदाज़ा होता था.वह इतने ऊँचे शिखर पर विराजमान होने के बावजूद भी बहुत ही विनम्र थे और बहुत ही मीठी आवाज़ में बात करते थे.
लेकिन ग़ौर से देखें तो बातचीत में उनकी मिठास और गीतों में उनकी आवाज़ की बुलंदी का फ़र्क़ आसानी से नज़र आ जाता है.फ़िल्म बैजू बावरा का गीत "ओ दुनिया के रखवाले, सुन दर्द भरे मेरे नाले" रफ़ी की आवाज़ की ऊँचाई का अहसास आसानी से करा देता जिसे सुनकर यह सोचने के लिए मजबूर होना पड़ता है कि यह बुलंदी ख़ुदा की नेमत ही हो सकती है जो सबको नहीं मिलती.जिस तरह से नूरजहाँ को मलिका-ए-तरन्नुम कहा गया और दिलीप कुमार को अभिनय सम्राट का दर्जा दिया गया उसी तरह मोहम्मद रफ़ी को शहंशाह-ए-तरन्नुम कहा तो गया लेकिन यह शायद काफ़ी नहीं था.लगता तो यही है कि आवाज़ के इस जादूगर को कोई और नाम ना देकर अगर सिर्फ़ रफ़ी ही कहा जाए तो भी उनका जादू कम नहीं होता.तिकड़ी का राजएक ज़माना था जब संगीतकार नौशाद, गीतकार शकील बदायूँनी और मोहम्मद रफ़ी की तिकड़ी ने फ़िल्मी दुनिया पर राज किया था.यह तिकड़ी जिस फ़िल्म को मिल जाती थी उसकी कामयाबी के बारे में कोई शक नहीं रह जाता था.
रफ़ी साहब एक ख़ुशगप्पी थे और हँसी मज़ाक करना उनकी फ़ितरत थी.
दिलीप कुमार इसी तिकड़ी का फ़िल्म बैजू बावरा का वह भजन - 'मन तड़पत हरि दर्शन को' आज भी एक मिसाल बना हुआ है. इतना ही नहीं कहा तो यह भी जाता है कि मोहम्मद रफ़ी का आवाज़ की ही बदौलत शम्मी कपूर और जॉय मुखर्जी की पहचान बनी थी.शम्मी कपूर की बलखाती-लहराती अदाओं के साथ झटकेदार आवाज़ मिलाने का फ़न भी मोहम्मद रफ़ी के पास ही था.रफ़ी की आवाज़ में वह गहराई भी थी कि अगर वह 'चौदहवीं का चाँद' गीत गाते थे तो ऐसा लगता था कि आवाज़ बिल्कुल गुरुदत्त के गले से ही निकल रही हो.बेटी विदा करते समय बाप की भावनाओं को बयान करने के लिए आज भी 'बाबुल की दुआएँ लेती जा, जा तुझको सुखी संसार मिले' की दर्दभरी आवाज़ एक मिसाल बन चुकी है.रफ़ी साहब ने इस गाने के बारे में कहा था कि इसे गाते वक़्त उन्हें अपनी बेटी की विदाई याद आ गई थी इसलिए इस गाने में उनकी आवाज़ में जो दर्द उभरा वह बिल्कुल असली था.ख़ुशगप्पीदिलीप कुमार रफ़ी साहब के साथ बिताए वक़्त को याद करते हुए कहते हैं कि वह एक ख़ुशगप्पी थे और हँसी मज़ाक करना उनकी फ़ितरत थी. रफ़ी साहब बहुत ही भोले थे और उनके चेहरे के साथ साथ उनके अंदर भी बच्चों जैसी मासूमियत थी.रफ़ी साहब ने वैसे तो बच्चों के लिए भी बहुत से गाने गाए लेकिन उनमें से एक तो कुछ ख़ास ही था.रेम्माम्मा रेम्माम्मा रे, रेम्माम्मा रेम्माम्मा रे.सुन लो सुनाता हूँ तुमको कहानी, रूठो ना हमसे ओ गुड़ियों की रानी.इस गाने में रफ़ी साहब की आवाज़ की चंचलता, नटखटपन और बालसुलभ भावनाएं सुनते ही बनती है.रफ़ी साहब के बारे में जितना लिखा जाए, उनकी कला का बखान नहीं हो सकता. इसलिए कई बार यह कहावत ही सही लगती है कि कभी कभी शब्द भावनाओं का साथ छोड़ देते हैं.कभी-कभी सिर्फ़ यही लगता है कि ख़ामोश रहते हुए जो महसूस किया जा सकता है उसे लफ़्ज़ों के दायरे में नहीं बाँधा जा सकता.बिल्कुल यही मोहम्मद रफ़ी साहब को याद करने के मामले में होता है. उन्हें याद करने और श्रद्धांजलि देने के लिए तो यही काफ़ी है कि रफ़ी तो बस रफ़ी ही हैं. आज रफ़ी साहब भले ही हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनकी जादुई आवाज़ हमारे अहसास में रची बसी है और यह ख़याल ही रफ़ी साहब के चाहने वालों की तरफ़ से एक सच्ची श्रद्धांजलि हो सकती है.
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