Sunday, October 5, 2008

A biographical sketch of Mohammad Rafi


सदियों तक नहीं भुला पाएंगे रफी साहब को  
स्रोत: प्रभासाक्षी स्थान: नई दिल्ली दिनांक: 31 जुलाई 2006 आवाज की दुनिया के बेताज बादशाह मोहम्मद रफी ने जब 31 जुलाई 1980 को एक गाने की रिकार्डिंग पूरी करने के बाद संगीतकार लक्ष्मीकांत प्यारे लाल से यह कहा कि `ओके नाउ आई विल लीव´ तब यह किसी ने भी नहीं सोचा था कि आवाज का यह जादूगर उसी शाम इस दुनिया को अलविदा कह जायेगा। संगीत के प्रति समर्पित मोहम्मद रफी कभी भी अपने गाने को पूरा किए बिना रिकार्डिंग रूम से बाहर नहीं निकला करते थे। उस दिन अपने संगीतकार से कह गए शब्द उनके व्यावसायिक जीवन के आखिरी शब्द साबित हुये। उसी शाम 7 बजकर 30 मिनट पर मोहम्मद रफी को दिल का दौरा पड़ा और वह अपने कराड़ों प्रशंसकों को छोड़कर इस दुनिया से हमेशा-हमेशा के लिए चले गये। मोहम्मद रफी आज हमारे बीच नहीं हैं लेकिन फिजा के कण-कण में उनकी आवाज गूंजती हुई महसूस होती है। हिंदुस्तान का हर संगीत प्रेमी मोहम्मद रफी की दिलकश आवाज का दीवाना है। विदेशों में उनकी लोकप्रियता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 70 के दशक में पाकिस्तान में जितने लोकप्रिय मोहम्मद रफी थे उतनी लोकप्रियता वहां के प्रधानमंत्री जुल्फीकार अली भुट्टो को भी हासिल नहीं थी। एक गाने ने मोहम्मद रफी को खासतौर से पाकिस्तान मे हर दिल अजीज बना दिया था। फिल्म समझौता का यह गाना `बड़ी दूर से आए हैं प्यार का तोहफा लाए है´ बंटवारे के बाद अपने रिश्तेदारों से बिछडे़ हर पाकिस्तानी की आंखें आज भी नम कर देता है। पाकिस्तान में ही नहीं ब्रिटेन, केन्या, वेस्टइंडीज मे भी मोहम्मद रफी के गाने पसंद किए जाते हैं। मोहम्मद रफी बचपन में अपने माता-पिता के साथ लाहौर में रह रहे थे। उन दिनों अक्सर उनके मोहल्ले मे एक फकीर का आना जाना लगा रहता था। उसके गीत सुनकर मोहम्मद रफी के दिल मे संगीत के प्रति लगाव पैदा हुआ जो दिन पर दिन बढ़ता गया। उनके बडे़ भाई हमीद ने मोहम्मद रफी के मन मे संगीत के प्रति बढ़ते रुझान को पहचान लिया और उन्हें इस राह पर आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया। रफी ने लाहौर में उस्ताद अब्दुल वाहिद खान से संगीत की शिक्षा लेना शुरू कर दिया। इसके अलावा वह गुलाम अलीखान से भारतीय शास्त्रीय संगीत भी सीखा करते थे। उन दिनों रफी और उनके भाई संगीत के एक कार्यक्रम में सुप्रसिद्ध गायक कलाकार केएल सहगल के गानों को सुनने के लिए गये। लेकिन बिजली चली जाने के कारण जब केएल सहगल ने गाने से इंकार कर दिया तब उनके भाई हमीद कार्यक्रम के संचालक के पास गए और उनसे गुजारिश की कि वह उनके भाई रफी को गाने का एक मौका देें। संचालक के राजी होने पर रफी ने पहली बार 13 वर्ष की उम्र में अपना पहला गीत स्टेज पर दर्शकों के बीच पेश किया। दर्शकों के बीच बैठे संगीतकार श्याम सुंदर को उनका गाना काफी पसंद आया और उन्होंने रफी को मुंबई आने का न्यौता दे दिया। श्याम सुदंर के संगीत निर्देशन में रफी ने अपना पहला गाना एक पंजाबी फिल्म `गुलबलोच´ के लिए `सोनिए नी हिरीए नी´ पाश्र्व गायिका जीनत बेगम के साथ गाया। वर्ष 1944 में नौशाद के संगीत निर्देशन में उन्होंने अपना पहला हिन्दी गाना `हिन्दुस्तान के हम हैं´ `पहले आप´ फिल्म के लिए गाया लेकिन इस फिल्म के जरिए वह कुछ खास पहचान नहीं बना पाये। लेकिन वर्ष 1949 में नौशाद के संगीत निर्देशन में ही फिल्म `दुलारी´ में गाए गीत `सुहानी रात ढल चुकी´ के जरिए रफी ने सफलता की ऊंचाइयों पर चढ़ना शुरू किया और उसके बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। साठ के दशक में दिलीप कुमार, देवानंद, शम्मी कपूर, राजेन्द्र कुमार, शशि कपूर, राजकुमार जैसे नामचीन नायकों की आवाज कहे जाने वाले रफी नेे अपने तीन दशक से भी ज्यादा लंबे कंरियर में लगभग 26000 फिल्मी और गैर फिल्मी गाने गाये। उन्होंने हिन्दी के अलावा मराठी, तेलुगू और पंजाबी फिल्मों के गीतों के लिए भी अपना स्वर दिया। रफी के गाए गीतों में से कुछ सदाबहार गीतों को याद कीजिए- तू गंगा की मौज (बैजू बावरा-1952), नन्हे मुन्ने बच्चे तेरी मुट्ठी में क्या है (बूट पालिश-1953), उड़े जब जब जुल्फें तेरी (नया दौर-1957), दो सितारों का जमीं पर है मिलन (कोहीनूर-1960), सौ साल पहले हमें तुमसे प्यार था (जब प्यार किसी से होता है-1961), हुस्न वाले तेरा जवाब नहीं (घराना-1961), तेरी प्यारी प्यारी सूरत को किसी की नजर न लगे (ससुराल-1961), ए गुलबदन ए गुलबदन (प्रोफेसर-1962), तुझे जीवन की डोर से बांध लिया है (असली नकली-1962), मेरे महबूब तुझे मेरी मोहब्बत की कसम (मेरे महबूब-1963), दिल एक मंदिर है (दिल एक मंदिर-1963), जो वादा किया वो निभाना पड़ेगा (ताजमहल-1963), ये मेरा प्रेम पत्र पढ़कर (संगम-1964), छू लेने दो नाजुक होठों को (काजल-1965), पुकारता चला हूं मैं (मेरे सनम-1965), बहारों फूल बरसाओ मेरा महबूब आया है (सूरज-1966), दिल पुकारे आ रे आरे आरे (ज्वैल थीफ-1967), मैं गाऊं तुम सो जाओ (ब्रह्मचारी-1968), बाबुल की दुआंए लेती जा (नीलकमल-1968), बेखुदी में सनम (हसीना मान जायेगी-1968), आने से उसके आए बहार (जीने की राह-1969), ओ हसीना जुल्फो वाली (तीसरी मंजिल-1969), खिलौना जानकर मेरा दिल तोड़ जाते हो (खिलौना-1970), आजा तुझको पुकारे मेरे गीत (गीत-1970), िझलमिल सितारों का आंगन होगा (जीवन मृत्यु-1970), यूं ही तुम मुझसे बात करती हो (सच्चा झूठा-1970), कितना प्यारा वादा है (कारवां-1971), इतना तो याद है मुझे (महबूब की मेेंहदी-1971), कुछ कहता है ये सावन (मेरा गांव मेरा देश-1971), चुरा लिया है तुमने जो दिल को (यादों की बारात-1973), तेरी बिंदिया रेे (अभिमान-1973), वादा करले साजना (हाथ की सफाई-1974), पर्दा है पर्दा (अमर अकबर एंथानी-1977), क्या हुआ तेरा वादा (हम किसी से कम नहीं-1977), आदमी मुसाफिर है (अपनापन-1978), चलो रे डोली उठाओ (जानी दुश्मन-1979) दर्दे दिल दर्दे जिगर (कर्ज-1980), मैंने पूछा चांद से (अब्दुल्ला-1980), मेरे दोस्त किस्सा ये क्या हो गया (दोस्ताना-1980) और जनम जनम का साथ है (भींगी पलकें-1982)। मोहम्मद रफी को मिले सम्मानों को देखें तो उन्हें गीतों के लिए 6 बार फिल्म फेयर का अवार्ड मिला है। उन्हें पहला फिल्म फेयर अवार्ड वर्ष 1960 में प्रदर्शित फिल्म (चौंदहवी का चांद) फिल्म के `चौंदहवी का चांद हो या आफताब हो´ गाने के लिए दिया गया था। इसके अलावा उन्हें `तेरी प्यारी प्यारी सूरत को किसी की नजर न लगे´ (ससुराल 1961) के लिए भी मोहम्मद रफी को सर्वश्रेष्ठ गायक का फिल्म फेयर पुरस्कार प्राप्त हुआ। वर्ष 1966 में फिल्म (सूरज) के गाने `बहारों फूल बरसाओ मेरा महबूब आया है´ के लिए मोहम्मद रफी को सर्वश्रेष्ठ गायक और वर्ष 1968 में (ब्रम्ह्चारी) फिल्म के गाने `दिल के झरोकों में तुझको छुपाकर) के लिए सर्वश्रेष्ठ गायक के फिल्मफेयर पुरस्कार से सम्मानित किए गये। इसके पश्चात उन्हें फिल्म फेयर अवार्ड के लिए लगभग 10 वर्ष इंतजार करना पड़ा। वर्ष 1977 में नासिर हुसैन की (हम किसी से कम नहीं) में गाए उनके गीत `क्या हुआ तेरा वादा´ के लिए उन्होंने सर्वश्रेष्ठ पाश्र्व गायक के रूप में फिल्म फेयर अवार्ड हासिल किया। इसी गाने के लिए वह नेशनल अवार्ड से भी सम्मानित किए गये। संगीत के क्षेत्र में मोहम्मद रफी के महत्वपूर्ण योगदान को देखते हुए भारत सरकार ने उन्हें वर्ष 1965 में पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया। रफी के पसंदीदा संगीत निर्देशकों के तौर पर नौशाद का नाम सबसे उपर आता है। रफी के पहले तलत महमूद नौशाद के चहेते गायक थे लेकिन एक रिकार्डिंग के दौरान तलत महमूद को सिगरेट पीते देखकर नौशाद गुस्सा हो गए और बाद में उन्होंंने (बैजू बावरा) फिल्म के लिए तलत महमूद की जगह मोहम्मद रफी को गाने का मौका दिया। भारत, पाकिस्तान विभाजन के बाद नौशाद और रफी ने भारत में ही रहने का फैसला किया। इसके बाद जब कभी नौशाद को अपनी फिल्मों के लिए गायक कलाकार की जरूरत होती थी वह मोहम्मद रफी को ही काम करने का मौका दिया करते थे। उनके इस व्यवहार को देखकर बहुत लोग नाखुश थे। फिर भी नौशाद ने लोगों की अनसुनी करते हुए मोहम्मद रफी को ही अपनी फिल्मों में काम करने का अधिक मौका देना जारी रखा। नौशाद, मोहम्मद रफी की जोड़ी के कुछ गानों में `न तू जमीं के लिये´ (दास्तान), दिलरूबा मैंने तेरे प्यार में क्या क्या न किया (दिल दिया दर्द लिया), ए हुस्न जरा जाग तुझे इश्क जगाये (मेरे महबूब), तेरे हुस्न की क्या तारीफ करूं (लीडर), कैसी हसीन आज बहारों की रात है (आदमी), कल रात जिंदगी से मुलाकात हो गई (पालकी), हम हुए जिनके लिए बबाZद (दीदार), मधुबन में राधिका नाची रे (कोहीनूर), नैन लड़ जइहे तो मनवा में कसक (गंगा जमुना), जैसे सुपर हिट नगमें शामिल हैं। मोहम्मद रफी के गाए गीतोंं को नौशाद के अलावा एसडी बर्मन, ओपी नैयर, मदन मोहन, शंकर जयकिशन, लक्ष्मीकांत प्यारे लाल और रवि ने भी अपने संगीत से संवारा है। एसडी बर्मन के संगीत निर्देशन में रफी ने देवानंद के लिए कई सुपरहिट गाने गाए जिनमें `दिल का भंवर´, `बेखुदी में सनम´, `खोया खोया चांद´ जैसे गाने शामिल हैं। पचास और साठ के दशक में ओपी नैयर के संगीत निर्देशन में भी रफी ने गीत गाये। ओपी नैयर मोहम्मद रफी के गाने के अंदाज से बहुत प्रभावित थे। उन्होंंने किशोर कुमार के लिए मोहम्मद रफी से `मन मोरा बांवरा´ गीत फिल्म (रंगीली) के लिए गवाया। शम्मी कपूर के लिए भी रफी और ओपी नैयर की जोड़ी ने `यूं तो हमने लाख हसीं देखे हैं, तुमसा नहीं देखा´, `तारीफ करूं क्या उसकी जिसने तुम्हें बनाया´ और `कश्मीर की कली´ जैसे सदाबहार गीत गाकर शम्मी कपूर को उनके कंरियर की ऊंचाइयों तक पहुंचाने में अहम भूमिका निभाई है। मदन मोहन के संगीत निर्देशन में भी मोहम्मद रफी की आवाज बहुत सजती थी। इन दोनों की जोड़ी ने `तेरी आंखों के सिवा इस दुनिया में रखा क्या है´, `ये दुनिया ये महफिल मेरे काम की नहीं´ और `तुम जो मिल गए हो´ जैसे न भूलने वाले गीत बनाए हैं। साठ और सत्तर के दशक में मोहम्मद रफी की जोड़ी संगीतकार लक्ष्मीकांत, प्यारेलाल के साथ काफी पसंद की गई। रफी और लक्ष्मी-प्यारे की जोड़ी वाली पहली हिट फिल्म (पारसमणि) थी। इसके बाद इन दोनों की जोड़ी ने कई सुपरहिट फिल्मों मे एक साथ काम किया। वर्ष 1964 में जहां फिल्म (दोस्ती) के लिए मोहम्मद रफी सर्वश्रेष्ठ पाश्र्वगायक के फिल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित किए गए वहीं लक्ष्मीकांत, प्यारेलाल को भी इसी फिल्म के लिए सर्वश्रेष्ठ संगीतकार का फिल्म फेयर पुरस्कार प्राप्त हुआ। हालांकि फिल्म की शुरुआत के समय यह गाना महिला पाश्र्व गायक की आवाज में रिकार्ड होना था लेकिन गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी के कहने पर संगीतकार लक्ष्मीकांत प्यारेलाल ने इस गाने को रफी की ही आवाज दी।

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