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Noorjahan - The Singing Sensation

आख़िरी दम तक स्टार रहीं नूरजहाँ
----- लाहौर से यासीन गोरेज़ा

नूरजहाँ को अगर जन्मजात कलाकार कहा जाए तो ग़लत नहीं होगा. उप-महाद्वीप के फ़िल्मी इतिहास में ऐसी कोई अभिनेत्री पैदा नहीं हुई जिसे नूरजहाँ का स्थान दिया जा सके.
उन्होंने 1935 में सिर्फ़ नौ वर्ष की उम्र में कलकत्ता में ‘शीला या पिंड दी कुड़ी’ में सिर्फ़ एक गाने की झलक दिखा कर स्पष्ट कर दिया कि वह भविष्य की महान कलाकार हैं. बाल कलाकार होने के बावजूद नूरजहाँ का नाम अपनी दूसरी ही फ़िल्म से प्रचार विज्ञापन में हीरोइन के बाद दूसरे नंबर पर आने लगा.
‘फ़ख़्रे इस्लाम’, ‘मिस्टर 420’, ‘मिस्टर ऐंड मिसेज़ मुंबई’, ‘हीर सयाल’, ‘ससी पन्नू’, और ‘इम्पीरियल मेल’, से ही यह स्पष्ट हो गया था कि उन की आवाज़ के बिना फ़िल्म हिट कराना आसान काम नहीं है.
1938 में कलकत्ता से लाहौर वापसी पर नूरजहाँ का कॉनट्रैक्ट पंचोली आर्ट स्टूडियोज़ से हुआ.
‘गुल-बकावली’, ‘यमला जट’, और ‘चौधरी’ में नूरजहाँ ने बाल कलाकार के रूप में पूरे पंजाब में धूम मचा दी.
स्टेज शो
उन फ़िल्मों की ज़बरदस्त कामयाबी के बाद पंचोली आर्ट स्टूडियोज़ से उनका कॉनट्रैक्ट समाप्त हो गया और उन्होंने दोबारा पंजाब के बड़े शहरों से सिनेमा स्टेज प्रोग्रामों में अपनी आवाज़ का जादू जगाना शुरू कर दिया.
ऐसे ही एक प्रोग्राम को देख कर सय्यद शौकत हुसैन रिज़वी ने उन्हें अपनी पहली फ़िल्म ‘ख़ानदान’ के लिए हीरोइन चुन लिया.
एक अभिनेत्री के रूप में पहली ही फ़िल्म के बाद पूरे हिन्दुस्तान में उनके गीतों और उनके स्वाभाविक अभिनय की धूम मच गई और मुंबई के फ़िल्म निर्माता उन्हें मुंबई ले जाने के लिए लाहौर पहुंच गए.
मुंबई के फ़िल्म निर्माता वी एम व्यास की दो फ़िल्मों ‘दुहाई’ और ‘नौकर’ और ज़िया सरहदी की फ़िल्म ‘नादान’ के पिट जाने के बाद भी नूरजहाँ की शोहरत पर कोई असर नहीं पड़ा.
लाहौर से मुंबई
मुंबई में नूरजहाँ की सुपरहिट फ़िल्मों में अमरनाथ की ‘गांव की गोरी’ शौकत हुसैन रिज़्वी की ‘ज़ीनत’ और महबूब की गीतों से सजी रोमांटिक फ़िल्म ‘अनमोल घड़ी’ के नाम लिए जा सकते हैं.
लता मंगेशकर के काफ़ी क़रीब रही हैं नूरजहाँ
एक अभिनेत्री और गायिका के तौर पर इन तीन फ़िल्मों में नूरजहाँ अपने शिख्रर तक पहुंच चुकी थीं. खास तौर से ‘ज़ीनत’ फ़िल्म में बचपन से बुढ़ापे तक के पात्र की भूमिका से उन्होंने उस समय के प्रसिद्ध कलाकारों को हैरत में डाल दिया था.
निर्देशक लुक़मान की फ़िल्म ‘हमजोली’ में रोमांटिक और दुखद अभिनय के बाद नूरजहाँ ने कला टीकाकारों को यह लिखने पर विवश कर दिया कि वह इस युग की महान कलाकारों ख़ुर्शीद, माधुरी, सुरैया, मुनव्वर सुलताना, नर्गिस, कानन बाला, शांता आपटे और रागिनी से रत्ती भर भी कम नहीं हैं बल्कि अभिनय में उन से बहुत ऊपर हैं.
मुंबई में आख़िरी फ़िल्में
मुंबई में नूरजहाँ की आख़री दो फ़िल्में ‘मिर्ज़ा साहिबां’ और ‘जुगनू’ थी.
‘मिर्ज़ा साहिबां’ तो अपने विषय के कारण पिट गई जबकि ‘जुगनू’ में नूरजहाँ की सुरीली आवाज़ और शोख़ और चंचल अभिनय के बाद दुखद अंजाम तक उन के पात्र को सभी प्रकार के लोगों ने सराहा,
और यह उस दौर की सुपरहिट फ़िल्म कही गई. यहाँ यह कहना भी ग़लत नहीं होगा कि तीन फ़िल्मों में असफल रहने वाले दिलीप कुमार ‘जुगनू’ में नूरजहाँ के मुक़ाबले मुख्य भूमिका में आकर रातों रात सुपरहिट हीरो बन गए.
विभाजन के बाद जब नूरजहाँ लाहौर आ गईं तो उनकी पुरानी छवि उनके काम आई और एक निर्देशक के रूप में उनकी पहली फ़िल्म ‘चुनवे’ सुपर हिट हुई.
बाद में सिबतैन फ़ज़ली की ‘दोपट्टा’, एम रशीद की ‘पाटे ख़ान’ और मसूद परवेज़ की ‘इंतिज़ार’ भी सफल रहीं.
हालाँकि ‘गुलनार’ और ‘लख़्ते-जिगर’ बॉक्स ऑफ़िस पर कामयाबी हासिल नहीं कर सकीं लेकिन नूरजहाँ के अभिनय और गायन को सराहना ज़रूर मिली.
नूरजहाँ ने अपने कला-जीवन में बचपन से लेकर ढलती जवानी तक हर प्रकार के पात्र निभाए. उप-महाद्वीप के फ़िल्मी इतिहास में ऐसा उदाहरण मिलना मुश्किल है कि किसी अभिनेत्री को इतनी कम उम्र में ही इतनी ऊँचाई मिली हो और वह कलाकार मरते दम तक उसी जगह पर बरक़रार रही हो.

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